वृन्द के सर्वश्रेष्ठ दोहे | 22 Best Vrind Ke Dohe With Meaning in Hindi With HD Images
Top Vrind Ke Dohe, Pad And Poems in Hindi With Meaning : वृन्द हिन्दी के कवि थे। रीतिकालीन परम्परा के अन्तर्गत वृन्द का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके नीति के दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं।
वृन्द के सर्वश्रेष्ठ दोहे अर्थ सहित हिन्दी मे ( फोटोस के साथ )
- 1 -
अति हठ मत कर, हठ बढ़ै, बात न करिहै कोय।
ज्यौं- ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं - त्यौं भारी होय।
अर्थ : जिस प्रकार कम्बल के भीगते रहने से वह भारी होता जाता है -, उसी प्रकार किसी व्यक्ति के हठ या जिद करने से, उसका जिद्दीपन बढ़ता जाता है। तथा एक समय ऐसा आता कि लोग उसके हठी स्वभाव के कारण उससे बात करना भी पसंद नहीं करते हैं।
- 2 -
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौ, दीपहिं देत बुझाय।।
अर्थ : तीव्र हवा प्रज्वलित अग्नि को तो और अधिक प्रचंड बना देती है , लेकिन वही हवा दीपक को बुझा देती है। इस संसार का यही नियम है , बलवान व्यक्ति की सहायता करने के लिए तो कई लोग सामने आ जाते हैं , जबकि निर्बल का कोई सहायक नहीं होता है।
- 3 -
नैना देत बताय सब, हिये को हेत अहेत।
जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कही देत।।
अर्थ : जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण किसी व्यक्ति की वास्तविक छवि को बता देता है। उसी प्रकार किसी व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्ति के प्रति स्नेह का भाव है या द्वेष का भाव है , यह बात उसके नेत्रों को देख कर ही ज्ञात की जा सकती है।
- 4 -
फेर न ह्वै हैं कपट सों, जो कीजे ब्यौपार।
जैसे हाँडी काठ की, चढ़ै न दूजी बार।
अर्थ : जिस प्रकार लकड़ी से बनी हुई हाँडी (बर्तन) को दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता है , ठीक उसी प्रकार जो मनुष्य कपट पूर्वक व्यापार करता है , उसका व्यापार लम्बे समय तक नहीं चलता है। यही बात व्यक्ति के वव्यहार और आचरण पर भी लागू होती है।
- 5 -
ऊँचे बैठे ना लहै, गुन बिन बड़पन कोइ।
बैठो देवल सिखर पर, बायस गरुड़ न होइ।
अर्थ : जिस प्रकार मंदिर के उच्च शिखर पर बैठा हुआ कौआ गरुड़ की साम्यता प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार गुण रहित व्यक्ति उच्च आसन पर बैठने मात्र से ही उच्चता को प्राप्त नहीं कर सकता।
- 6 -
निरस बात, सोई सरस, जहाँ होय हिय हेत।
गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधन देत।
अर्थ : कवि वृन्द कहते हैं, जिस व्यक्ति के प्रति हमारे ह्रदय में लगाव और स्नेह का भाव होता है, उस व्यक्ति की नीरस बात भी सरस लगने लगती हैं। जैसे समधिन के द्वारा दी जाने वाली गालियाँ भी अच्छी लगती हैं क्योंकि उन गालियों में स्नेह का भाव होता है।
- 7 -
मन भावन के मिलन के, सुख को नहिन छोर।
बोलि उठै, नचि- नचि उठै, मोर सुनत घनघोर।।
अर्थ : कवि वृन्द कहते हैं कि जैसे मोर बादलों की गर्जना सुन कर मधुर आवाज में बोलने और नाचने लगता है उसी प्रकार हमारे मन को प्रिय लगने वाले व्यक्ति के मिलने पर हमें असीमित आनन्द की प्राप्ति होती है और हमारी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती है।
- 8 -
उत्तम विद्या लीजिये,जदपि नीच पाई होय।
परयो अपावन ठौर में, कंचन तजय न कोय।।
अर्थ : जिस प्रकार स्वर्ण अपवित्र स्थान पर पड़ा हो, तो भी उसे कोई त्यागना नहीं चाहता है। ठीक उसी प्रकार उत्तम विद्या (अच्छा ज्ञान ) कहीं या किसी से भी मिले उसको ग्रहण कर लेना चाहिए, चाहे वह (उत्तम विद्या) अधम व्यक्ति के पास ही क्यों नहीं हो।
- 9 -
जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत।
कोकिल अबरि लेत है, काग निबौरी लेत।।
अर्थ : जो व्यक्ति जिसके गुणों को जानता है, वह उसी के गुणों का आदर - सम्मान करता है। जैसे कोयल आम का रसास्वादन करती है और जबकि कौआ नीम की निम्बौरी से ही सन्तुष्ट हो जाता है।
- 10 -
भले- बुरे सब एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परंतु है काक-पिक, रितु बसंत का माहिं।
अर्थ : जब तक कोई व्यक्ति बोलता नहीं है, तब तक उसके भले या बुरे होने का पता नहीं चलता है। जब वह बोलता है तब ज्ञात होता कि वह भला है या बुरा है। जैसे वसंत ऋतु आने पर जब कौवा और कोयल बोलते हैं, तब उनकी कडुवी और मीठी वाणी से ज्ञात हो जाता कि कौन बुरा है और कौन भला है।
- 11 -
उद्यम कबहुँ न छोड़िये, पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये, उनियो देखि पयोद।
अर्थ : कवि वृन्द कहते हैं कि बादलों को उमड़ा हुआ देख कर हमें अपने घड़े ( मिट्टी का बर्तन जिसे पानी भरने के लिए काम में लिया जाता है ) को नहीं फोड़ना चाहिये। इसी प्रकार दूसरे लोगों से कुछ प्राप्त हो जायेगा इस आशा में हमें अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
- 12 -
अपनी पँहुच विचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर।।
अर्थ : व्यक्ति के पास ओढने के लिए जितनी लम्बी कम्बल हो, उतने ही लम्बे पैर पसारने चाहिए। इसी प्रकार उसे अपने उपलब्ध साधनों के अनुरूप ही अपना कारोबार फैलाना चाहिए।
- 13 -
उत्तम विद्या लीजिये, यदपि नीच पै होय।
परो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय।।
अर्थ : अपवित्र या गन्दे स्थान पर पड़े होने पर भी सोने को कोई नहीं छोड़ता है। उसी प्रकार विद्या या ज्ञान चाहे नीच व्यक्ति के पास हो, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।
- 14 -
मूरख को हित के वचन, सुनि उपजत है कोप।
साँपहि दूध पिवाइये, वाके मुख विष ओप।।
अर्थ : साँप को दूध पिलाने पर भी उसके मुख से विष ही निकलता है। इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को उसके हित के वचन अर्थात उसकी भलाई की बात कही जाये, तो भी उसे क्रोध ही आता है।
- 15 -
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान।।
अर्थ : इस दोहे में कवि वृन्द जी अभ्यास करने के महत्व को समझाते हुए बताया है कि किसी भी चीज को हासिल करने के लिए अभ्यास करना या साधना करना बेहद जरूरी है क्योंकि अभ्यास या साधना करने से ही असाध्य कार्य अथवा कठिन से कठिन काम भी सिद्ध हो जाते हैं।
- 16 -
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर।।
अर्थ : इस दोहे में कवि वृन्द जी कहते हैं कि हर व्यक्ति को अपनी हालत देखकर ही खर्च करना चाहिए अर्थात हर किसी को अपनी स्थिति से परिचित होना चाहिए और अपनी आमदनी के मुताबिक ही खर्च करना चाहिए।
- 17 -
विद्या धन उद्यम बिना, कहौ जु पावै कौन।
बिना झुलाए ना मिलै, ज्यौं पंखा का पौन।।
अर्थ : इस दोहे में कवि वृन्द जी विद्या रुप धन की महानता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि विद्या रूपी धन आसानी से नहीं मिलता अर्थात इसको प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करना होता है। बिना मेहनत किए कोई भी इस विद्या रूपी अनमोल धन की प्राप्ति नहीं कर सकता और न ही यह विरासत से मिलने वाली संपत्ति है।
- 18 -
बात कहन की रीति में, है अंतर अधिकाय।
एक वचन तैं रिस बढ़ै, एक वचन तैं जाय।।
अर्थ : इस दोहे में महाकवि वृन्द जी कहते हैं कि हर व्यक्ति की बात कहने का तरीका अलग-अलग होता है। एक तरीका वो होता है जिससे कोई व्यक्ति मोहित हो जाता है वहीं दूसरा तरीका वो है जिससे किसी को गुस्सा आ जाता है। वहीं अगर कोई व्यक्ति बिना सोच-समझकर किसी बात को करता है या फिर किसी अन्य व्यक्ति का अपनी बात से दिल दुखाता है तो इससे दूसरों का गुस्सा बढ़ जाता है।
- 19 -
भेष बनावै सूर कौ, कायर सूर न होय।
खाल उढ़ावै सिंह की, स्यार सिंह नहिं होय।।
अर्थ : इस दोहे में महान कवि वृन्द जी ने नकली वेष धारण कर झूठे दिखावे पर पर बखान करते हुए कहा है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वेष धारण कर शूर वीर बनने की कितनी भी कोशिश क्यों नहीं कर ले, लेकिन वे कभी शूर-वीर नहीं बन सकते हैं क्योंकि वीरता जन्मजात होती है, व्यक्ति के अंदर से निखरी हुई भावना होती है।
- 20 -
धन अरु गेंद जु खेल को दोऊ एक सुभाय।
कर में आवत छिन में, छिन में करते जाय।।
अर्थ : इस दोहे में महान कवि वृन्द जी ने धन की लिसता के बारे में सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि इंसान की जिंदगी में धन, किसी खेल में गेंद के बराबर हैं क्योंकि धन और गेंद का स्वभाव एक जैसा होता है।
- 21 -
दान-दीन को दीजै, मिटै दरिद्र की पीर।
औषध ताको दीजै, जाके रोग शरीर।।
अर्थ : कवि वृन्द जी के इस दोहे के माध्यम से यह संदेश दे रहे हैं कि हमें दीन अर्थात गरीबों लोगों की मद्द करनी चाहिए, दीनों को दान करना चाहिए ताकि उसकी गरीबी मिट सके।
- 22 -
अंतर अंगुरी चार को, सांच झूठ में होय।
सब माने देखी कही, सुनी न माने कोय।।
अर्थ : इस दोहे में कवि वृन्द जी कहते हैं कि सत्य और असत्य घटना के बीच अंतर होता है। वहीं अगर कोई कुछ बात बोले तो वह सच हो या फिर झूठ पहले हमें उसे सुनना चाहिए और फिर पता लगने के बाद ही सत्य या झूठ पर यकीन करना चाहिए।
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