तुलसीदास के दोहे | 311 Best Tulsidas Ke Dohe With Meaning in Hindi With HD Images
Best Tulsidas Ke Dohe With Meaning in Hindi From Ramcharitmanas - पढ़िये श्रीरामचरितमानस रामायण के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित। रामायण के रचना करने वाले तुलसीदास जी एक महान कवि, संत और साधू थे। वो एक महान हिन्दी साहित्य कवि थे। उन्होने संस्कृत और अवधि भाषा मे बहोत सारी मशहूर कविताए और दोहे लिखे।
इन सब मे श्रीरामचरितमानस सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य है, जो भगवान राम के पूरे जीवन और संघर्ष के बारे मे है। इस पोस्ट मे आप तुलसीदास के सबसे मशहूर ( Famous ) दोहे आप पढ़ेंगे।
Tulsidas Dohe On Wisdom - तुलसीदास के दोहे बुद्धिमत्ता पर
➡ श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि
मृग लोचनि के नैन सर को अस लागि न जाहि।
अर्थ : लक्ष्मी के अहंकार ने किसे टेढ़ा और प्रभुता अधिकार ने किसे बहरा नही किया है। युवती स्त्री के नयन वाण से कौन पुरूश बच सका है।
2.
➡ ग्यानी तापस सूर कवि कोविद गुन आगार
केहि के लोभ विडंवना कीन्हि न एहि संसार।
अर्थ : संसार में कौन ज्ञानी तपस्वी बीर कवि विद्वान और गुणों का भंडारी है जिसे लोभ ने बर्बाद न किया हो।
3.
➡ मोह न अंध कीन्ह केहि केही।को जग काम नचाव न जेही।
तृश्ना केहि न कीन्ह बौराहा।केहि कर हृदय क्रोध नहि दाहा।
अर्थ : किस आदमी को मोह ने अंधा नहीं किया है।संसार में काम वासना ने किसे नहीं नचाया है। इच्छाओं ने किसे नहीं मतवाला बनाया है।क्रोध ने किसके हृदय को नहीं जलाया है।
4.
➡ जो अति आतप ब्याकुल होईं।तरू छाया सुख जानई सोईं
अर्थ : धूप से ब्याकुल आदमी हीं बृक्ष की छाया का सुख जान सकता है।
5.
➡ तिन सहस्त्र महुॅ सब सुख खानी।दुर्लभ ब्रह्म लीन विग्यानी।
धर्मशील विरक्त अरू ग्यानी।जीवन मुक्त ब्रह्म पर ग्यानी।
अर्थ : हजारों जीवनमुक्त लोगों में भी सब सुखों की खान ब्रह्मलीन विज्ञानवान लोग और भी दुर्लभ हैं।धर्मात्मा वैरागी ज्ञानी जीवनमुक्त और ब्रह्मलीन प्राणी तो अत्यंत दुर्लभ होते हैं।
6.
➡ ग्यानवंत कोटिक महॅ कोउ।जीवन मुक्त सकृत जग सोउ।
अर्थ : शास्त्र का कहना है कि करोड़ों विरक्तों मे कोई एक हीं वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है और करोड़ों ज्ञानियों मे कोई एक ही जीवनमुक्त विरले हीं संसार में पाये जाते हैं।
7.
➡ नर सहस्त्र महॅ सुनहुॅ पुरारी।कोउ एक होइ धर्म ब्रत धारी।
धर्मशील कोटिक महॅ कोई।बिशय बिमुख बिराग रत होई।
अर्थ : हजारों लोगों में कोई एक धर्म पर रहने बाला और करोड़ों में कोई एक सांसारिक विशयों से विरक्त वैराग्य में रहने बाला मनुश्य होता है।कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।
8.
➡ जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।
अर्थ : जो आदमी प्रभु रूपी साधन पाकर भी इस संसार सागर से नहीं पार लगे वह मूर्ख मन्दबुद्धि कृतघ्न है जो आत्महत्या करने बाले का फल प्राप्त करता है।
9.
➡ एहि तन कर फल विसय न भाई।स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।
नर तन पाई विशयॅ मन देही।पलटि सुधा ते सठ विस लेहीं।
अर्थ : यह शरीर सांसारिक विसय भोगों के लिये नहीं मिला है। स्वर्ग का भोग भी कम है तथा अन्ततः दुख देने बाला है। जो आदमी सांसारिक भोग में मन लगाता है वे मूर्ख अमृत के बदले जहर ले रहे हैं।
10.
➡ सुनहु तात माया कृत गुन अरू दोस अनेक
गुन यह उभय न देखि अहि देखिअ सो अविवेक।
अर्थ : हे भाई -माया के कारण हीं इस लोक में सब गुण अवगुण के दोस हैं।असल में ये कुछ भी नही होते हैं।इनको देखना हीं नहीं चाहिये।इन्हें समझना हीं अविवेक है।
11.
➡ नर सरीर धरि जे पर पीरा।करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।
करहिं मोहवस नर अघ नाना।स्वारथ रत परलोक नसाना।
अर्थ : मनुश्य रूप में जन्म लेकर जो अन्य लोगों को दुख देते हैं उन्हें जन्म मरण का महान तकलीफ सहना पड़ता है। लोग स्वार्थ के कारण अनेकों पाप करते हैं।इसीसे उनका परलोक भी नाश हो जाता है।
12.
➡ पर हित सरिस धर्म नहि भाई।पर पीड़ा सम नहि अधमाई
निर्नय सकल पुरान बेद कर।कहेउॅ तात जानहिं कोविद नर ।
अर्थ : दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नही है और दूसरों को दुख देने के समान कोई पाप नही है। यही सभी बेदों एवं पुराणों का विचार है।
13.
➡ सेवत विशय विवर्ध जिमि नित नित नूतन मार।
अर्थ : काम वासना का सेवन करने से उन्हें अधिक भोगने की इच्छा दिनानुदिन बढ़ती हीं जाती है।
14.
➡ महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहुॅ सखा मति धीर।
अर्थ : इस जन्म मृत्यु रूपी महान दुर्जन संसार को जो जीत सकता है-वही महान वीर है और जो स्थिर बुद्धि रूपी रथ पर सवार है-वही ब्यक्ति इसे जीत सकता है।
15.
➡ ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुॅ मन विश्राम
भूत द्रोह रत मोह बस राम विमुख रति काम।
अर्थ : जो जीवों का द्रोही मोह माया के अधीन ईश्वर भक्ति से विमुख और काम वासना में लिप्त है उसे सपना में भी धन संपत्ति शुभ शकुण और हृदय मन की शान्ति नहीं हो सकती है।
16.
➡ सुत बित नारि भवन परिवारा।होहिं जाहि जग बारहिं बारा।
अर्थ : पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार इस संसार में बार बार होते हैं।
17.
➡ साम दाम अरू दंड विभेदा।नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।
अर्थ : बेद का कथन है कि साम दाम दण्ड और विभेद का गुण राजा के हृदय में बसते हैं।
18.
➡ काल दंड गहि काहु न मारा।हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।
निकट काल जेहिं आबत सांई।तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहिं नाई।
अर्थ : काल मृत्यु लाठी लेकर किसी को नहीं मारता।वह धर्म शक्ति बुद्धि और विचार छीन लेता है। जिसका काल निकट आ गया हो उसे रावण की तरह हीं भ्रम हो जाता है।
19.
➡ सदा रोगबस संतत क्रोधी।विश्नु विमुख श्रुति संत विरोधी।
तनु पोशक निंदक अघ खानी।जीवत सब सम चैदह प्रानी।
अर्थ : सर्वदा रोगी रहने बाला लगातार क्रोध करने बाला भगवान विश्नु से प्रेम नहीं रखने बाला बेद पुराण तथा संत महात्माअेंा का बिरोधी केवल अपने शरीर का भरण पोशन करने बाला सदा दूसरों की निंदा करने बाला और महान पापी-ये सब चैदह तरह के लोग जिन्दा हीं मृतक समान हैं।
20.
➡ जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।मुएहि बधें नहि कछु मनुसाई।
कौल कामबस कृपिन बिमूढा।अति दरिद्र अजसी अति बूढा।
अर्थ : वाममार्गी कामी कंजूस अति मूर्ख अत्यंत गरीब बदनाम और अतिशय बूढा मारने में कुछ भी मनुश्यता बहादुरी नहीं है।
21.
➡ प्रीति विरोध समान सन करिअ नीति अस आहि
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।
अर्थ : प्रेम और शत्रुता बराबरी बाले से हीं करना चाहिये।नीति ऐसा हीं कहता है। यदि शेर मेढक को मार दे तो क्या कोई भी उसे अच्छा कहेगा।
22.
➡ फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद
मूरूख हृदय न चेत जौं गुरू मिलहिं विरंचि सम।
अर्थ : ब्रहमा जैसा गुरू मिल जाने पर भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान उत्पन्न नहीं होता जैसे कि बादल द्वारा अमृत रूपी बर्शा होने के बाबजूद बेंत फलता फूलता नहीं है।
23.
➡ साहस अनृत चपलता माया।भय अविवेक असौच अदाया।
रिपु कर रूप सकल तैं गावा।अति विसाल भय मेाहि सुनाबा।
अर्थ : साहस असत्य वचन चंचलता छल कपट डर मूर्खता अपवित्रता और निर्दयता ये सब आठ शत्रु के समग्र गुण होते हैं।
24.
➡ बचन परम हित सुनत कठोरे।सुनहि जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।
अर्थ : ऐसे लोग बहुत कम हीं होते हैं जो सुनने में कठोर किंतु प्रभाव में कल्याणकारी बातें कहते और सुनते हैं।
25.
➡ प्रिय बानी जे सुनहि जे कहहिं।ऐसे नर निकाय जग अहहिं।
अर्थ : संसार में ऐसे लोग बहुत ज्यादा हैं जो मुॅह पर सामने प्यारी मीठी बात हीं कहते और सुनते हैं।
26.
➡ नाथ बयरू कीजे ताही सों।बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।
अर्थ : दुशमनी उसी से करनी चाहिये जिसे बुद्धि और बल के द्वारा जीता जा सके।
27.
➡ बरू भल बास नरक कर ताता।दुश्ट संग जनि देइ विधाता।
अर्थ : नरक में रहना अच्छा है किंतु ईश्वर दुश्ट दुर्जन की संगति कभी न दे।
28.
➡ सरनागत कहुॅ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि
ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।
अर्थ : जो आदमी स्वयं का अहित समझकर शरण में आये ब्यक्ति का त्याग करते हैं वे नीच और पापी हैं तथा उन्हें देखने में भी नुकसान है।
29.
➡ सुमति कुमति सब के उर रहहिं।नाथ पुरान निगम अस कहहिं।
जहाॅ सुमति तहॅ सम्पति नाना।जहाॅ कुमति तहॅ बिपति निदाना।
अर्थ : वेद पुराण का मत है कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके दिल में रहता है किंतु जहाॅ अच्छी बुद्धि है वहाॅ अनेको प्रकार की सुख सम्पत्ति रहती है एवं कुबुद्धि की जगह विपत्तियों का भंडार रहता है।
30.
➡ काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ
सब परिहरि रघुवीरहि भजहुॅ भजहि जेहि संत।
अर्थ : काम क्रोध घमंड लोभ सब नरक के रास्ते हैं। इन्हें छोड़ कर ईश्वर की प्रार्थना करें जैसा संत लोग सर्वदा करते हैं।
31.
➡ जो आपन चाहै कल्याना।सुजस सुमति सुभ गति सुख नाना।
सो परनारि लिलार गोसांई।तजउ चउथि के चाॅद की नाई।
अर्थ : जो आदमी अपनी भलाई अच्छी प्रतिश्ठा अच्छी बुद्धि और विकाश तथा अनेक प्रकार के सुख चाहते हों वे दूसरों की स्त्री के मस्तक को चतुर्थी की चाॅद की तरह त्याग दें-पर स्त्री का मुॅह कभी न देखे।
32.
➡ सचिव वैद गुर तीनी जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।
अर्थ : मंत्री वैद्य गुरू ये तीनों यदि डर या लोभ से हित की बात नहीं कह कर केवल प्रिय बोलते हैं तो राज्य धर्म और शरीर तीनो का जल्दी हीं विनाश हो जाता है।
33.
➡ छिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित अति अधम सरीरा।
अर्थ : पृथ्वी जल आग आकाश और हवा-इन्हीं पाॅच तत्वों से यह अधम शरीर बना है।
34.
➡ अनुज बधू भगिनी सुत नारी।सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहि कुदृश्टि बिलोकइ जोइ।ताहि बधें कछु पाप न होइ।
अर्थ : रे मूर्ख-सुन लो।छोटे भाई की स्त्री बहन पुत्र की स्त्री और बेटी-ये चारों एक हैं। इनकी ओर जो बुरी नजर से देखे-उसे मारने में तनिक भी पाप नहीं लगता है।
35.
➡ लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केबल नारि
क्रोध के पुरूश बचन बल मुनिवर कहहिं विचारि।
अर्थ : लोभ को इच्छा और घमंड का बल है।काम को केवल स्त्री का बल है। क्रोध को कठोर बचनों का बल है-ऐसा ज्ञानी मुनियों का विचार है।
36.
➡ तात तीनि अति प्रवल खल काम क्रोध अरू लोभ
मुनि विग्यान धाम मन करहिं निमिस महुॅ छोभ।
अर्थ : काम क्रोध और लोभ-येतीनों अति बलवान शत्रु हैं। ये ज्ञानी मुनियों के मन को भी तुरंत दुखी कर देते हैं।
37.
➡ राखिअ नारि जदपि उर माहीॅ।जुबती सास्त्र नृपति बस नाहिं।
अर्थ : स्त्री को हृदय में रखने पर भी युवती शास्त्र और राजा किसी के बश मेंनहीं रहते।
38.
➡ सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ।भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।
अर्थ : अच्छी तरह विचारित अैार चिन्तन किये हुये शास्त्र को भी अनेकों बार देखना चाहिये और अच्छी तरह सेवा किये हुये राजा को भी अपने वश में नहीं मानना चाहिये।
39.
➡ परहित बस जिन्ह के मन माहीं।तिन्ह कहुॅ जग दुर्लभ कछु नाहीं।
अर्थ : जिनके हृदय मन में दूसरों का हित बसता है उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
40.
➡ इमि कुपंथ पग देत खगेसा।रह न तेज तन बुधि बल लेसा।
अर्थ : कुमार्ग पर पैर देते हीं शरीर में बुद्धि ताकत तेज लेशमात्र भी नहीं रह जाता है।
41.
➡ तब मारीच हृदयॅ अनुमान।नवहि विरोध नहि कल्याना।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।बैद बंदि कवि भानस गुनी।
अर्थ : शस्त्रधारी रहस्य जानने बाला शक्तिशाली स्वामी मूर्ख धनी बैद्य भाट कवि एवं रसोइया-इन नौ लोगों से शत्रुता विरोध करने में कल्याण कुशल नहीं होता है।
42.
➡ प्रीति प्रनय बिनु मद तें गुनी।नासहिं वेगि नीति अस सुनी।
42.
➡ प्रीति प्रनय बिनु मद तें गुनी।नासहिं वेगि नीति अस सुनी।
अर्थ : नम्रता बिना प्रेम और घमंड से गुणवान जल्द हीं नश्ट हो जाते हैं।
43.
➡ राज नीति बिनु धन बिनुधर्मा।हरिहिं समर्पे बिनु सतकर्मा।
विद्या बिनु विवेक उपजाएॅ।श्रमफल पढें किएॅ अरू पाएॅ।
संग मे जती कुमंत्र ते राजा।मान तें ग्यान पान तें लाजा।
अर्थ : नीति सिद्धान्त बिना राज्य धर्म बिना धन प्राप्त करना भगवान को समर्पित किये बिना उत्तम कर्म करना और विवेक रखे बिना विद्या पढ़ने से केवल मिहनत हीं हाथ लगता है। सांसारिक संगति से सन्यासी बुरे सलाह से राजा मान से ज्ञान और मदिरापान से लज्जा हाथ लगती है।
44.
➡ धर्म तें विरति जोग तें ग्याना।ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।
अर्थ : धर्म के आचरण से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है और ज्ञान हीं मोक्ष देने बाला है।
45.
➡ माया ईसु न आपु कहुॅ जान कहिअ सो जीव
बंध मोच्छ वद सर्वपर माया प्रेरक सीव।
अर्थ : जो माया ईश्वर और अपने आप को नहीं जानता-वही जीव है। जो कर्मों के मुताविक बंधन एवं मोक्ष देने बाला सबसे अलग माया का प्रेरक है-वही ईश्वर है।
46.
➡ ग्यान मान जहॅ एकउ नाहीं।देख ब्रह्म समान सब माॅही।
कहिअ तात सो परम विरागी।तन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।
अर्थ : ज्ञान वहाॅ है जहाम् एक भी दोश नहीं है।वह सब में एक हीं ब्रह्म को देखता है। उसी को वैरागी कहना चाहिये जो समस्त सिद्धियों और सभी गुणों को तिनका के जैसा त्याग दिया हो।
47.
➡ एक दुश्ट अतिसय दुखरूपा।जा बस जीव परा भवकूपा।
एक रचइ जग गुन बस जाके।प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके।
अर्थ : अविद्या दोशपूर्ण है और अति दुखपूर्ण है।इसी के अधीन लोग संसार रूपी कुआॅ में पड़े हुये हैं। विद्या के वश में गुण है जो इस संसार की रचना करती है और वह ईश्वर से प्रेरित होती है। उसकी अपनी कोई शक्ति नही है।
48.
➡ ऐसेहु पति कर किएॅ अपमाना।नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।काएॅ वचन मन पति पद प्रेमा।
अर्थ : पति का अपमान करने पर स्त्री नरक में अनेक प्रकार का दुख पाती है। शरीर वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिये एकमात्र धर्म ब्रत और नियम है।
48.
➡ मुखिआ मुख सो चाहिऐ खान पान कहुॅ एक
पालइ पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक।
अर्थ : मुखिया मुॅह के समान होना चाहिये जो खाने पीने में अकेला है पर विवेक पूर्वक शरीर के सभी अंगों का पालन पोशन करता है।
49.
➡ गुर पितु मात स्वामि सिख पालें।चलेहुॅ कुमग पग परहिं न खाले।
अर्थ : गुरू पिता माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने से पैर गडटे़ में नहीं पड़ता है।
50.
➡ सहज सनेहॅ स्वामि सेवकाई।स्वारथ छल फल चारि विहाई।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा।सो प्रसादु जन पावै देवा।
अर्थ : छल कपट स्वार्थ अर्थ धर्म काम मोक्ष सबों को त्याग स्वाभावतःस्वामी की सेवा और आज्ञा पालन के बराबर स्वामी की और कोई सेवा नहीं है।
51.
➡ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।सेवा धरमु कठिन जगु जाना।
स्वामि धरम स्वारथहिं विरोधू।वैरू अंध प्रेमहि न प्रबोधू।
अर्थ : वेद शाश्त्र पुराणों में प्रसिद्ध है और संसार जानता है कि सेवा धर्म अत्यंत कठिन है। अपने स्वामी के प्रति कर्तब्य निर्बाह और ब्यक्तिगत स्वार्थ एक साथ नहीं निबह सकते। शत्रुता अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता है।दोनाे में गलती का डर बना रहता हैै।
52.
➡ रहत न आरत कें चित चेत।
अर्थ : दुखी ब्यक्ति के हृदय चित्त में विवेक नहीं रहता है।
53.
➡ जो सेवकु साहिवहि संकोची।निज हित चहई तासु मति पोची।
सेवक हित साहिब सेवकाई।करै सकल सुभ लोभ बिहाई।
अर्थ : सेवक यदि मालिक को दुविधा में डालकर अपना भलाई चाहता है तो उसकी बुद्धि नीच है।सेवक की भलाई इसी में है कि वह तमाम सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा करे।
54.
➡ करम प्रधान विस्व करि राखा।जो जस करई सो तस फलु चाखा।
अर्थ : ईश्वर ने विश्व मंे कर्म की महत्ता दी है। जो जैसा कर्म करता है-वह वैसा हीं फल भोगता है।
55.
➡ गुर पित मातु स्वामि हित बानी।सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।
उचित कि अनुचित किएॅ विचारू।धरमु जाइ सिर पातक भारू।
अर्थ : गुरू पिता माता स्वामी की बातें अपने भलाई की मानकर प्रसन्न मन से मानना चाहिये। इसमें उचित अनुचित का विचार करने पर धर्म का नाश होता है और भारी पाप सिर पर लगता है।
56.
➡ अनुचित उचित विचारू तजि जे पालहिं पितु बैन
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।
अर्थ : जो उचित अनुचित का विचार छोड़कर अपने पिता की बातें मानता है वे इस लोक में सुख और यश पाकर अन्ततः स्वर्ग में निवास करते हैं।
57.
➡ सब विधि सोचिअ पर अपकारी।निज तनु पोसक निरदय भारी।
सोचनीय सबहीं विधि सोई।जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।
अर्थ : जो दूसरोंका अहित करता है-केवल अपने शरीर का भरण पोशण करता है और अन्य लोगों के लिये निर्दयी है-जो सब छल कपट छोड़कर भगवान का भक्त नहीं है-उनका तो सब प्रकार से दुख करना चाहिये।
58.
➡ बैखानस सोइ सोचै जोगू।तपु विहाइ जेहि भावइ भोगू।
सोचअ पिसुन अकारन क्रोधी।जननि जनक गुर बंधु विराधी।
अर्थ : वह वाणप्रस्थी ब्यक्ति भी सोच का कारण है जो तपस्या छोड़ भोग में रत है। चुगलखोर अकारण क्रोध करने बाला माता पिता गुरू एवं भाई बंधु के साथ बैर विरोध रखनेवाला भी दुख और सोच करने लायक है।
59.
➡ सोचिअ गृही जो मोहवस करइ करम पथ त्याग
सोचिअ जती प्रपंच रत विगत विवेक विराग।
अर्थ : उस गृहस्थ का भी सोच करना चाहिये जिसने मोहवश अपने कर्म को छोड़ दिया है। उस सन्यासी का भी दुख करना चाहिये जो सांसारिक जंजाल में फॅसकर ज्ञान वैराग्य से विरक्त हो गया है।
60.
➡ सोचिअ पुनि पति बंचक नारी।कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई।जो नहि गुर आयसु अनुसरई।
अर्थ : उस स्त्री का भी दुख करना चाहिये जो पति से छलावा करने बाली कुटिल झगड़ालू ओर मनमानी करने बाली है। उस ब्रह्मचारी का भी दुख करना चाहिये जो ब्रह्मचर्यब्रत छोड़कर गुरू के आदेशानुसार नहीं चलता है।
61.
➡ सोचिअ बयसु कृपन धनबानू।जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।
सोचिअ सुद्र विप्र अवमानी।मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।
अर्थ : उस वैश्य के बारे में दुख होना चाहिये जो धनी होकर भी कंजूस है तथा जो अतिथि सत्कार और शिव की भक्ति मन से नही करता है। वह शुद्र भी दुख के लायक है जो ब्राह्मण का अपमान करता है और बहुत बोलने और मान इज्जत चाहने वाला हो तथा जिसे अपने ज्ञान का बहुत घमंड हो।
62.
➡ सोचिअ विप्र जो वेद विहीना।तजि निज धरमु विसय लय लीना।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना।जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।
अर्थ : उस ब्राह्मण का दुख करना चाहिये जो वेद नही जानता और अपना कर्तब्य छोड़कर विसय भोगों में लिप्त रहता है। उस राजा का भी दुख करना चाहिये जो नीति नहीं जानता और जो अपने प्रजा को अपने प्राणों के समान प्रिय नहीं मानता है।
63.
➡ जनि मानहुॅ हियॅ हानि गलानी।काल करम गति अघटित जानी।
अर्थ : समय और कर्म की गति अमिट जानकर अपने हृदय में हानि और ग्लानि कभी मत मानो।
64.
➡ सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं।दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
धीरज धरहुं विवेक विचारी।छाड़िअ सोच सकल हितकारी।
अर्थ : मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते विलखते हैं लेकिन धीर ब्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं। विवेकी ब्यक्ति धीरज रखकर शोक का परित्याग करते हैं।
65.
➡ जनम मरन सब दुख सुख भोगा।हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा।
काल करम बस होहिं गोसाईं।बरबस राति दिवस की नाईं।
अर्थ : जन्म मृत्यु सभी दुख सुख के भेाग हानि लाभ प्रिय लोगों से मिलना या बिछुड़ना समय एवं कर्म के अधीन रात एवं दिन की तरह स्वतः होते रहते हैं।
66.
➡ सुर नर मुनि सब कै यह रीती।स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।
अर्थ : देवता आदमी मुनि सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं।
67.
➡ सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।माया कृत परमारथ नाहीं।
अर्थ : इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख और दुख माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं।
68.
➡ सेवक सठ नृप कृपन कुमारी।कपटी मित्र सूल सम चारी।
सखा सोच त्यागहुॅ मोरें।सब बिधि घटब काज मैं तोरे।
अर्थ : मूर्ख सेवक कंजूस राजा कुलटा स्त्री एवं कपटी मित्र सब शूल समान कश्ट देने बाले होते हैं।मित्र पर सब चिन्ता छोड़ देने परभी वह सब प्रकार से काम आते हैं।
69.
➡ आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहिगत सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।
अर्थ : जो सामने बना बना कर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुराई रखता है तथा जिसका मन साॅप की चाल समान टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है।
70.
➡ देत लेत मन संक न धरई।बल अनुमान सदा हित करई।
विपति काल कर सतगुन नेहा।श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।
अर्थ : मित्र लेन देन करने में शंका न करे।अपनी शक्ति अनुसार सदा मित्र की भलाई करे। बेद के मुताबिक संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह प्रेम करता है।अच्छे मित्र का यही गुण है।
71.
➡ जिन्ह कें अति मति सहज न आई।ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।
अर्थ : जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल हठ करके हीं किसी से मित्रता करते हैं। सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोक कर अच्छे रास्ते पर चलाते हैं और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करते हैं।
72.
➡ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना।
अर्थ : जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होते उन्हें देखने से भी भारी पाप लगता है। अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान जानना चाहिये।
73.
➡ प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुॅ एक प्रधान
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।
अर्थ : धर्म के चार चरण सत्य दया तप और दान हैं जिनमें कलियुग में एक दान हीं प्रधान है। दान जैसे भी दिया जाये वह कल्याण हीं करता है।
74.
➡ दम दान दया नहि जानपनी।जड़ता परवंचनताति घनी।
तनु पोशक नारि नरा सगरे।पर निंदक जे जग मो बगरे।
अर्थ : इन्द्रियों का दमन दान दया एवं समझ किसी में नही रह गयी है। मूर्खता एवं लोगों को ठगना बहुत बढ़ गया है। सभी नर नारी केवल अपने शरीर के भरण पोशन में लगे रहते हैं। दूसरों की निंदा करने बाले संसार में फैल गये हैं।
75.
➡ इरिशा पुरूशाच्छर लोलुपता।भरि पुरि रही समता बिगता।
सब लोग वियोग विसोक हए।बरनाश्रम धर्म अचार गए।
अर्थ : ईश्र्या कठोर वचन और लालच बहुत बढ़ गये हैं और समता का विचार समाप्त हो गया है।लोग विछोह और दुख से ब्याकुल हैं। वर्णाश्रम का आचरण नश्ट हो गया है।
76.
➡ कलिकाल बिहाल किए मनुजा।नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहि तोश विचार न शीतलता।सब जाति कुजाति भए मगता।
अर्थ : कलियुग ने लोगों को बेहाल कर दिया है।लोग अपने बहन बेटियों का भी ध्यान नही रखते। मनुश्यों में संतोश विवेक और शीतलता नही रह गई है। जाति कुजाति सब भूलकर लोग भीख माॅगने बाले हो गये हैं।
77.
➡ नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।अभिमान विरोध अकारनहीं।
लघु जीवन संबतु पंच दसा।कलपांत न नास गुमानु असा।
अर्थ : लोग अनेक बिमारियों से ग्रसित बिना कारण घमंड एवं विरोध करने बाले अल्प आयु किंतु घमंड ऐसा कि वे अनेक कल्पों तक उनका नाश नही होगा।ऐसा कलियुग का प्रभाव होगा।
78.
➡ अबला कच भूसन भूरि छुधा।धनहीन दुखी ममता बहुधा।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।मति थोरि कठोरि न कोमलता।
अर्थ : स्त्रियों के बाल हीं उनके आभूसन होते हैं।उन्हें भूख बहुत लगती है। वे धनहीन एवं अनेकों तरह की ममता रहने के कारण दुखी रहती है। वे मूर्ख हैं पर सुख चाहती हैं।धर्म में उनका तनिक भी प्रेम नही है। बुद्धि की कमी एवं कठोरता रहती है-कोमलता नहीं रहती है।
79.
➡ तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत भख दान
देव न बरखहिं धरनी बए न जामहिं धान।
अर्थ : आदमी जप तपस्या ब्रत यज्ञ दान के धर्म तामसी भाव से करेंगें। देवता पृथ्वी पर जल नही बरसाते हैं और बोया हुआ धान अन्नभी नहीं उगता है।
80.
➡ सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेश पाखंड
मान मोह भारादि मद ब्यापि रहे ब्रम्हंड।
अर्थ : कलियुग में छल कपट हठ अभिमान पाखंड काम क्रोध लोभ और घमंड पूरे संसार में ब्याप्त हो जाते हैं।
81.
➡ कवि बृंद उदार दुनी न सुनी।गुन दूसक ब्रात न कोपि गुनी।
कलि बारहिं बार दुकाल परै।बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।
अर्थ : कवि तो झुंड के झुंड हो जायेंगें पर संसार में उनके गुण का आदर करने बाला नहीं होगा। गुणी में दोश लगाने बाले भी अनेक होंगें।कलियुग में अकाल भी अक्सर पड़ते हैं और अन्न पानी बिना लोग दुखी होकर खूब मरते हैं।
82.
➡ धनवंत कुलीन मलीन अपी।द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।
नहि मान पुरान न बेदहिं जो।हरि सेवक संत सही कलि सो।
अर्थ : नीच जाति के धनी भी कुलीन माने जाते हैं। ब्राम्हण का पहचान केवल जनेउ रह गया है। नंगे बदन का रहना तपस्वी की पहचान हो गई है। जो वेद पुराण को नही मानते वे हीं इस समय भगवान के भक्त और सच्चे संत कहे जाते हैं।
83.
➡ ससुरारि पिआरि लगी जब तें।रिपु रूप कुटुंब भये तब तें।
नृप पाप परायन धर्म नही।करि दंड बिडंब प्रजा नित हीं।
अर्थ : ससुराल प्यारी लगने लगती है और सभी पारिवारिक संबंधी शत्रु रूप हो जाते हैं। राजा पापी हो जाते हैं एवं प्रजा को अकारण हीं दण्ड देकर उन्हें प्रतारित किया करते हैं।
84.
➡ कुलवंति निकारहिं नारि सती।गृह आनहि चैरि निवेरि गती।
सुत मानहि मातु पिता तब लौं।अबलानन दीख नहीं जब लौं।
अर्थ : वंश की लाज रखने बाले सती स्त्री को लोग घर से बाहर कर देते हैं और किसी कुलटा दासी को घर में रख लेते हैं। पुत्र माता पिता को तभी तक सम्मान देते हैं जब तक उन्हें विवाहोपरान्त अपने स्त्री का मुॅह नहीं दिख जाता है।
85.
➡ बहु दाम सवाॅरहि धाम जती।बिशया हरि लीन्हि न रही बिरती।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।कलि कौतुक तात न जात कही।
अर्थ : सन्यायी अपने घर को बहुुत पैसा लगाकर सजाते हैं कारण उनमें वैराग्य नहीं रह गया है।उन्हें सांसारिक भेागों ने घेर लिया है। अब गृहस्थ दरिद्र और तपस्वी धनबान बन गये हैं।कलियुग की लीला अकथनीय है।
86.
➡ भए वरन संकर कलि भिन्न सेतु सब लोग
करहिं पाप पावहिं दुख भय रूज सोक वियोग।
अर्थ : इस युग में सभी लोग वर्णशंकर एवं अपने धर्म विवेक से च्युत होकर अनेकानेक पाप करते हैं तथा दुख भय शोक और वियोग का दुख पाते हैं।
87.
➡ सुद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।बैठि बरासन कहहिं पुराना।
सब नर कल्पित करहिं अचारा।जाइ न बरनि अनीति अपारा।
अर्थ : शुद्र अनेक प्रकार के जप तप व्रत करते हैं और उॅचे आसन पर बैठकरपुराण कहते हैं।सबलोग मनमाना आचरण करते हैं। अनन्त अन्याय का वर्णन नही किया जा सकता है।
88.
➡ ते विप्रन्ह सन आपु पुजावहि।उभय लोक निज हाथ नसावहिं।
विप्र निरच्छर लोलुप कामी।निराचार सठ बृसली स्वामी।
अर्थ : वे स्वयं को ब्राम्हण से पुजवाते हैं और अपने हीं हाथों अपने सभी लोकों को बर्बाद करते हैं। ब्राम्हण अनपट़ लोभी कामी आचरणहीन मूर्ख एवं नीची जाति की ब्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं।
89.
➡ जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुइ्र्र गृह संपति नासी।मूड़ मुड़ाई होहिं संन्यासी।
अर्थ : तेली कुम्हार चाण्डाल भील कोल एवं कलवार जो नीच वर्ण के हैं स्त्री के मृत्यु पर या घर की सम्पत्ति नश्ट हो जाने पर सिर मुड़वाकर सन्यासी बन जाते हैं।
90.
➡ आपु गए अरू तिन्हहु धालहिं।जे कहुॅ सत मारग प्रतिपालहिं।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।परहिं जे दूसहिं श्रुति करि तरका।
अर्थ : वे खुद तो बर्बाद रहते हैं और जो सन्मार्ग का पालन करते हैं उन्हें भी बर्बाद करने का प्रयास करते हैं।
वे तर्क में वेद की निंदा करते हैं और अनेकों जीवन तक नरक में पड़े रहते हैं।
91.
➡ पर त्रिय लंपट कपट सयाने।मोह द्रेाह ममता लपटाने।
तेइ अभेदवादी ग्यानी नर।देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।
अर्थ : जो अन्य स्त्रियों में आसक्त छल कपट में चतुर मोह द्रोह ममता में लिप्त होते हैं वे हीं अभेदवादी ज्ञान कहे जाते हैं।कलियुग का यही चरित्र देखने में आता है।
92.
➡ बादहिं सुद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि
जानइ ब्रम्ह सो विप्रवर आॅखि देखावहिं डाटि।
अर्थ : शुद्र ब्राम्हणों से अनर्गल बहस करते हैं।वे अपने को उनसे कम नही मानते। जो ब्रम्ह को जानता है वही उच्च ब्राम्हण है ऐसा कहकर वे ब्राम्हणों को डाॅटते हैं।
93.
➡ ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं विप्र गुर घात।
अर्थ : स्त्री पुरूस ब्रह्म ज्ञान के अलावे अन्य बात नही करते लेकिन लोभ में कौड़ियों के लिये ब्राम्हण और गुरू की हत्या कर देते हैं।
94.
➡ हरइ सिश्य धन सोक न हरई।सो गुर घोर नरक महुॅ परई
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं।उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
अर्थ : जो गुरू अपने चेला का धन हरण करता है लेकिन उसके दुख शोक का नाश नही करता-वह घेार नरक में जाता है। माॅ बाप बच्चों को मात्र पेट भरने की शिक्षा धर्म सिखलाते हैं।
95.
➡ सौभागिनीं विभूसन हीना।विधवन्ह के सिंगार नवीना।
गुर सिस बधिर अंध का लेखा।एक न सुनइ एक नहि देखा।
अर्थ : सुहागिन स्त्रियों के गहने नही रहते पर विधबायें रोज नये श्रृंगार करती हैं। चेला और गुरू में वहरा और अंधा का संबंध रहता है। शिश्य गुरू के उपदेश को नही सुनता और गुरू को ज्ञान की दृश्टि प्राप्त नही रहती है।
96.
➡ सब नर काम लोभ रत क्रोधी।देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।भजहिं नारि पर पुरूस अभागी।
अर्थ : सभी नर कामी लोभी और क्रोधी रहते हैं।देवता ब्राहमण वेद और संत के विरोधी होते हैं। अभागी औरतें अपने गुणी सुंदर पति को त्यागकर दूसरे पुरूस का सेवन करती है।
97.
➡ नारि बिबस नर सकल गोसाई।नाचहिं नट मर्कट कि नाई।
सुद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।मेलि जनेउ लेहिं कुदाना।
अर्थ : सभी आदमी स्त्रियों के वश में रहते हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह नाचते रहते हैं। ब्राहमनों को शुद्र ज्ञान का उपदेश देते हैं और गर्दन में जनेउ पहन कर गलत तरीके से दान लेते हैं।
98.
➡ जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ
मन क्रम वचन लवार तेइ वकता कलिकाल महुॅ।
अर्थ : जो अपने कर्मों से दूसरों का अहित करते हैं उन्हीं का गौरव होता है और वे हीं इज्जत पाते हैं। जो मन वचन एवं कर्म से केवल झूठ बकते रहते हैं वे हीं कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।
99.
➡ असुभ वेस भूसन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।
अर्थ : जो अशुभ वेशभूसा धारण करके खाद्य अखाद्य सब खाते हैं वे हीं सिद्ध योगी तथा कलियुग में पूज्य माने जाते हैं।
100.
➡ निराचार जो श्रुतिपथ त्यागी।कलिजुग सोइ ग्यानी सो विरागी
जाकें नख अरू जटा बिसाला ।सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
अर्थ : हीन आचरण करने बाले जो बेदों की बातें त्याग चुके हैं वही कलियुग में ज्ञानी और वैरागी माने जाते हैं।
जिनके नाखून और जटायें लम्बी हैं-वे कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी हैं।
101.
➡ सोइ सयान जो परधन हारी।जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कह झूॅठ मसखरी जाना।कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।
अर्थ : जो दूसरों का धन छीनता है वही होशियार कहा जाता है। घमंडी अहंकारी को हीं लोग अच्छे आचरण बले मानते हैं। बहुत झूठ बोलने बाले को हीं-हॅसी दिलग्गी करने बाले को हीं गुणी आदमी समझा जाता है।
102.
➡ मारग सोइ जा कहुॅ जोइ भावा।पंडित सोइ जो गाल बजाबा।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोईं।ता कहुॅ संत कहइ सब कोई।
अर्थ : जिसे जो मन को अच्छा लगता है वही अच्छा रास्ता कहता है। जो अच्छा डंंग मारता है वही पंडित कहा जाता है। जो आडंबर और घमंड में रहता है उसी को लोग संत कहते हैं।
103.
➡ बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।
अर्थ : कलियुग में वर्णाश्रम का धर्म नही रहता हैं।चारों आश्रम भी नहीं रह जाते। सभी नर नारी बेद के बिरोधी हो जाते हैं।ब्राहमण वेदों के विक्रेता एवं राजा प्रजा के भक्षक होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नही मानता है।
104.
➡ भए लोग सब मोहबस लेाभ ग्रसे सुभ कर्म
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउॅ कछुक कलिधर्म।
अर्थ : सब लोग मोहमाया के अधीन रहते हैं। अच्छे कर्मों को लोभ ने नियंत्रित कर लिया है। भगवान के भक्तों को कलियुग के धर्मों को जानना चाहिये।
105.
➡ कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।
अर्थ : कलियुग के पापों ने सभी धर्मों को ग्रस लिया है। धर्म ग्रथों का लोप हो गया है। घमंडियों ने अपनी अपनी बुद्धि में कल्पित रूप से अनेकों पंथ बना लिये हैं।
106.
➡ सो कलिकाल कठिन उरगारी।पाप परायन सब नरनारी।
अर्थ : कलियुग का समय बहुतकठिन है।इसमें सब स्त्री पुरूस पाप में लिप्त रहते हैं।
107.
➡ मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।
काम वात कफ लोभ अपारा।क्रोध पित्त नित छाती जारा।
अर्थ : अज्ञान सभी रोगों की जड़ है।इससे बहुत प्रकार के कश्ट उत्पन्न होते हैं। काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है।क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है।
108.
➡ नहिं दरिद्र सम दुख जग माॅहीं।संत मिलन सम सुख जग नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया।संत सहज सुभाउ खगराया।
अर्थ : संसार में दरिद्रता के समान दुख एवं संतों के साथ मिलन समान सुख नहीं है। मन बचन और शरीर से दूसरों का उपकार करना यह संत का सहज स्वभाव है।
109.
➡ ग्यान पंथ कृपान कै धारा ।परत खगेस होइ नहिं बारा।
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई।सो कैवल्य परम पद लहईं
अर्थ : ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार की धार के जैसा है।इस रास्ते में भटकते देर नही लगती। जो ब्यक्ति बिना विघ्न बाधा के इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है वह मोक्ष के परम पद को प्राप्त करता है।
110.
➡ कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक।
अर्थ : सच्चा ज्ञान कहने समझने में मुशकिल एवं उसे साधने में भी कठिन है। यदि संयोग से कभी ज्ञान हो भी जाता है तो उसे बचाकर रखने में अनेकों बाधायें हैं।
111.
➡ सोहमस्मि इति बृति अखंडा।दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।तब भव मूल भेद भ्रमनासा।
अर्थ : मैं ब्रम्ह हूॅ-यह अनन्य स्वभाव की प्रचंड लौ है। जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है
तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है।
112.
➡ जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहि प्रीती।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई।जिमि खगपति जल कै चिकनाई।
अर्थ : किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की कमी से प्रेम नहीं होता।प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है।
113.
➡ सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।जद्यपि सो सब भाॅति अपाना।
एहि बिधि जीव चराचर जेते।त्रिजग देव नर असुर समेते।
अर्थ : तब वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्यारा होता है भले हीं वह सब तरह से मूर्ख हीं क्यों न हो। इसी प्रकार पशु पक्षी देवता आदमी एवं राक्षसों में भी जितने चेतन और जड़ जीव हैं।
114.
➡ कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई।सब पर पितहिं प्रीति समहोई।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।सपनेहुॅ जान न दूसर धर्मा।
अर्थ : कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है।पिता सब पर समान प्रेम करते हैं। पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता।
115.
➡ एक पिता के बिपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता।कोउ घनवंत सूर कोउ दाता।
अर्थ : एक पिता के अनेकों पुत्रों में उनके गुण और आचरण भिन्न भिन्न होते हैं। कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है।
116.
➡ नौका रूढ़ चलत जग देखा।अचल मोहबस आपुहिं लेखा।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी।कहहिं परस्पर मिथ्यावादी।
अर्थ : नाव पर चढ़ा हुआ आदमी दुनिया को चलता दिखाई देता है लेकिन वह अपने को स्थिर अचल समझता है। बच्चे गोलगोल घूमते है लेकिन घर वगैरह नहीं घूमते।लेकिन वे आपस में परस्पर एक दूसरे को झूठा कहते हैं।
117.
➡ नयन दोस जा कहॅ जब होइ्र्र।पीत बरन ससि कहुॅ कह सोई।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा।सो कह पच्छिम उपउ दिनेसा।
अर्थ : जब किसी को आॅखों में दोस होता है तो उसे चन्द्रमा पीले रंग का दिखाई पड़ता है। जब पक्षी के राजा को दिशाभ्रम होता है तो उसे सूर्य पश्चिम में उदय दिखाई पड़ता है।
118.
➡ संसार महॅ त्रिविध पुरूश पाटल रसाल पनस समा
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं।
अर्थ : संसार में तीन तरह के लोग होते हैं-गुलाब आम और कटहल के जैसा। एक फूल देता है-एक फूल और फल दोनों देता है और एक केवल फल देता है। लोगों मे एक केवल कहते हैं-करते नहीं।दूसरे जो कहते हैं वे करते भी हैं और तीसरे कहते नही केवल करते हैं।
119.
➡ पर उपदेश कुशल बहुतेरे।जे आचरहिं ते नर न घनेरे।
अर्थ : दूसरों को उपदेश शिक्षा देने में बहुत लोग निपुण कुशल होते हैं परन्तु उस शिक्षा का आचरण पालन करने बाले बहुत कम हीं होते हैं।
120.
➡ काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।
43.
➡ राज नीति बिनु धन बिनुधर्मा।हरिहिं समर्पे बिनु सतकर्मा।
विद्या बिनु विवेक उपजाएॅ।श्रमफल पढें किएॅ अरू पाएॅ।
संग मे जती कुमंत्र ते राजा।मान तें ग्यान पान तें लाजा।
अर्थ : नीति सिद्धान्त बिना राज्य धर्म बिना धन प्राप्त करना भगवान को समर्पित किये बिना उत्तम कर्म करना और विवेक रखे बिना विद्या पढ़ने से केवल मिहनत हीं हाथ लगता है। सांसारिक संगति से सन्यासी बुरे सलाह से राजा मान से ज्ञान और मदिरापान से लज्जा हाथ लगती है।
44.
➡ धर्म तें विरति जोग तें ग्याना।ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।
अर्थ : धर्म के आचरण से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है और ज्ञान हीं मोक्ष देने बाला है।
45.
➡ माया ईसु न आपु कहुॅ जान कहिअ सो जीव
बंध मोच्छ वद सर्वपर माया प्रेरक सीव।
अर्थ : जो माया ईश्वर और अपने आप को नहीं जानता-वही जीव है। जो कर्मों के मुताविक बंधन एवं मोक्ष देने बाला सबसे अलग माया का प्रेरक है-वही ईश्वर है।
46.
➡ ग्यान मान जहॅ एकउ नाहीं।देख ब्रह्म समान सब माॅही।
कहिअ तात सो परम विरागी।तन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।
अर्थ : ज्ञान वहाॅ है जहाम् एक भी दोश नहीं है।वह सब में एक हीं ब्रह्म को देखता है। उसी को वैरागी कहना चाहिये जो समस्त सिद्धियों और सभी गुणों को तिनका के जैसा त्याग दिया हो।
47.
➡ एक दुश्ट अतिसय दुखरूपा।जा बस जीव परा भवकूपा।
एक रचइ जग गुन बस जाके।प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके।
अर्थ : अविद्या दोशपूर्ण है और अति दुखपूर्ण है।इसी के अधीन लोग संसार रूपी कुआॅ में पड़े हुये हैं। विद्या के वश में गुण है जो इस संसार की रचना करती है और वह ईश्वर से प्रेरित होती है। उसकी अपनी कोई शक्ति नही है।
48.
➡ ऐसेहु पति कर किएॅ अपमाना।नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।काएॅ वचन मन पति पद प्रेमा।
अर्थ : पति का अपमान करने पर स्त्री नरक में अनेक प्रकार का दुख पाती है। शरीर वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिये एकमात्र धर्म ब्रत और नियम है।
48.
➡ मुखिआ मुख सो चाहिऐ खान पान कहुॅ एक
पालइ पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक।
अर्थ : मुखिया मुॅह के समान होना चाहिये जो खाने पीने में अकेला है पर विवेक पूर्वक शरीर के सभी अंगों का पालन पोशन करता है।
49.
➡ गुर पितु मात स्वामि सिख पालें।चलेहुॅ कुमग पग परहिं न खाले।
अर्थ : गुरू पिता माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने से पैर गडटे़ में नहीं पड़ता है।
50.
➡ सहज सनेहॅ स्वामि सेवकाई।स्वारथ छल फल चारि विहाई।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा।सो प्रसादु जन पावै देवा।
अर्थ : छल कपट स्वार्थ अर्थ धर्म काम मोक्ष सबों को त्याग स्वाभावतःस्वामी की सेवा और आज्ञा पालन के बराबर स्वामी की और कोई सेवा नहीं है।
51.
➡ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।सेवा धरमु कठिन जगु जाना।
स्वामि धरम स्वारथहिं विरोधू।वैरू अंध प्रेमहि न प्रबोधू।
अर्थ : वेद शाश्त्र पुराणों में प्रसिद्ध है और संसार जानता है कि सेवा धर्म अत्यंत कठिन है। अपने स्वामी के प्रति कर्तब्य निर्बाह और ब्यक्तिगत स्वार्थ एक साथ नहीं निबह सकते। शत्रुता अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता है।दोनाे में गलती का डर बना रहता हैै।
52.
➡ रहत न आरत कें चित चेत।
अर्थ : दुखी ब्यक्ति के हृदय चित्त में विवेक नहीं रहता है।
53.
➡ जो सेवकु साहिवहि संकोची।निज हित चहई तासु मति पोची।
सेवक हित साहिब सेवकाई।करै सकल सुभ लोभ बिहाई।
अर्थ : सेवक यदि मालिक को दुविधा में डालकर अपना भलाई चाहता है तो उसकी बुद्धि नीच है।सेवक की भलाई इसी में है कि वह तमाम सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा करे।
54.
➡ करम प्रधान विस्व करि राखा।जो जस करई सो तस फलु चाखा।
अर्थ : ईश्वर ने विश्व मंे कर्म की महत्ता दी है। जो जैसा कर्म करता है-वह वैसा हीं फल भोगता है।
55.
➡ गुर पित मातु स्वामि हित बानी।सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।
उचित कि अनुचित किएॅ विचारू।धरमु जाइ सिर पातक भारू।
अर्थ : गुरू पिता माता स्वामी की बातें अपने भलाई की मानकर प्रसन्न मन से मानना चाहिये। इसमें उचित अनुचित का विचार करने पर धर्म का नाश होता है और भारी पाप सिर पर लगता है।
56.
➡ अनुचित उचित विचारू तजि जे पालहिं पितु बैन
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।
अर्थ : जो उचित अनुचित का विचार छोड़कर अपने पिता की बातें मानता है वे इस लोक में सुख और यश पाकर अन्ततः स्वर्ग में निवास करते हैं।
57.
➡ सब विधि सोचिअ पर अपकारी।निज तनु पोसक निरदय भारी।
सोचनीय सबहीं विधि सोई।जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।
अर्थ : जो दूसरोंका अहित करता है-केवल अपने शरीर का भरण पोशण करता है और अन्य लोगों के लिये निर्दयी है-जो सब छल कपट छोड़कर भगवान का भक्त नहीं है-उनका तो सब प्रकार से दुख करना चाहिये।
58.
➡ बैखानस सोइ सोचै जोगू।तपु विहाइ जेहि भावइ भोगू।
सोचअ पिसुन अकारन क्रोधी।जननि जनक गुर बंधु विराधी।
अर्थ : वह वाणप्रस्थी ब्यक्ति भी सोच का कारण है जो तपस्या छोड़ भोग में रत है। चुगलखोर अकारण क्रोध करने बाला माता पिता गुरू एवं भाई बंधु के साथ बैर विरोध रखनेवाला भी दुख और सोच करने लायक है।
59.
➡ सोचिअ गृही जो मोहवस करइ करम पथ त्याग
सोचिअ जती प्रपंच रत विगत विवेक विराग।
अर्थ : उस गृहस्थ का भी सोच करना चाहिये जिसने मोहवश अपने कर्म को छोड़ दिया है। उस सन्यासी का भी दुख करना चाहिये जो सांसारिक जंजाल में फॅसकर ज्ञान वैराग्य से विरक्त हो गया है।
60.
➡ सोचिअ पुनि पति बंचक नारी।कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई।जो नहि गुर आयसु अनुसरई।
अर्थ : उस स्त्री का भी दुख करना चाहिये जो पति से छलावा करने बाली कुटिल झगड़ालू ओर मनमानी करने बाली है। उस ब्रह्मचारी का भी दुख करना चाहिये जो ब्रह्मचर्यब्रत छोड़कर गुरू के आदेशानुसार नहीं चलता है।
61.
➡ सोचिअ बयसु कृपन धनबानू।जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।
सोचिअ सुद्र विप्र अवमानी।मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।
अर्थ : उस वैश्य के बारे में दुख होना चाहिये जो धनी होकर भी कंजूस है तथा जो अतिथि सत्कार और शिव की भक्ति मन से नही करता है। वह शुद्र भी दुख के लायक है जो ब्राह्मण का अपमान करता है और बहुत बोलने और मान इज्जत चाहने वाला हो तथा जिसे अपने ज्ञान का बहुत घमंड हो।
62.
➡ सोचिअ विप्र जो वेद विहीना।तजि निज धरमु विसय लय लीना।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना।जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।
अर्थ : उस ब्राह्मण का दुख करना चाहिये जो वेद नही जानता और अपना कर्तब्य छोड़कर विसय भोगों में लिप्त रहता है। उस राजा का भी दुख करना चाहिये जो नीति नहीं जानता और जो अपने प्रजा को अपने प्राणों के समान प्रिय नहीं मानता है।
63.
➡ जनि मानहुॅ हियॅ हानि गलानी।काल करम गति अघटित जानी।
अर्थ : समय और कर्म की गति अमिट जानकर अपने हृदय में हानि और ग्लानि कभी मत मानो।
64.
➡ सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं।दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
धीरज धरहुं विवेक विचारी।छाड़िअ सोच सकल हितकारी।
अर्थ : मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते विलखते हैं लेकिन धीर ब्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं। विवेकी ब्यक्ति धीरज रखकर शोक का परित्याग करते हैं।
65.
➡ जनम मरन सब दुख सुख भोगा।हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा।
काल करम बस होहिं गोसाईं।बरबस राति दिवस की नाईं।
अर्थ : जन्म मृत्यु सभी दुख सुख के भेाग हानि लाभ प्रिय लोगों से मिलना या बिछुड़ना समय एवं कर्म के अधीन रात एवं दिन की तरह स्वतः होते रहते हैं।
Tulsidas Dohe On Friendship - तुलसीदास के दोहे मित्रता पर
➡ सुर नर मुनि सब कै यह रीती।स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।
अर्थ : देवता आदमी मुनि सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं।
67.
➡ सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।माया कृत परमारथ नाहीं।
अर्थ : इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख और दुख माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं।
68.
➡ सेवक सठ नृप कृपन कुमारी।कपटी मित्र सूल सम चारी।
सखा सोच त्यागहुॅ मोरें।सब बिधि घटब काज मैं तोरे।
अर्थ : मूर्ख सेवक कंजूस राजा कुलटा स्त्री एवं कपटी मित्र सब शूल समान कश्ट देने बाले होते हैं।मित्र पर सब चिन्ता छोड़ देने परभी वह सब प्रकार से काम आते हैं।
69.
➡ आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहिगत सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।
अर्थ : जो सामने बना बना कर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुराई रखता है तथा जिसका मन साॅप की चाल समान टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है।
70.
➡ देत लेत मन संक न धरई।बल अनुमान सदा हित करई।
विपति काल कर सतगुन नेहा।श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।
अर्थ : मित्र लेन देन करने में शंका न करे।अपनी शक्ति अनुसार सदा मित्र की भलाई करे। बेद के मुताबिक संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह प्रेम करता है।अच्छे मित्र का यही गुण है।
71.
➡ जिन्ह कें अति मति सहज न आई।ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।
अर्थ : जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल हठ करके हीं किसी से मित्रता करते हैं। सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोक कर अच्छे रास्ते पर चलाते हैं और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करते हैं।
72.
➡ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना।
अर्थ : जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होते उन्हें देखने से भी भारी पाप लगता है। अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान जानना चाहिये।
Tulsidas Dohe On Kaliyuga - तुलसीदास के दोहे कलियुग पर
73.
➡ प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुॅ एक प्रधान
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।
अर्थ : धर्म के चार चरण सत्य दया तप और दान हैं जिनमें कलियुग में एक दान हीं प्रधान है। दान जैसे भी दिया जाये वह कल्याण हीं करता है।
74.
➡ दम दान दया नहि जानपनी।जड़ता परवंचनताति घनी।
तनु पोशक नारि नरा सगरे।पर निंदक जे जग मो बगरे।
अर्थ : इन्द्रियों का दमन दान दया एवं समझ किसी में नही रह गयी है। मूर्खता एवं लोगों को ठगना बहुत बढ़ गया है। सभी नर नारी केवल अपने शरीर के भरण पोशन में लगे रहते हैं। दूसरों की निंदा करने बाले संसार में फैल गये हैं।
75.
➡ इरिशा पुरूशाच्छर लोलुपता।भरि पुरि रही समता बिगता।
सब लोग वियोग विसोक हए।बरनाश्रम धर्म अचार गए।
अर्थ : ईश्र्या कठोर वचन और लालच बहुत बढ़ गये हैं और समता का विचार समाप्त हो गया है।लोग विछोह और दुख से ब्याकुल हैं। वर्णाश्रम का आचरण नश्ट हो गया है।
76.
➡ कलिकाल बिहाल किए मनुजा।नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहि तोश विचार न शीतलता।सब जाति कुजाति भए मगता।
अर्थ : कलियुग ने लोगों को बेहाल कर दिया है।लोग अपने बहन बेटियों का भी ध्यान नही रखते। मनुश्यों में संतोश विवेक और शीतलता नही रह गई है। जाति कुजाति सब भूलकर लोग भीख माॅगने बाले हो गये हैं।
77.
➡ नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।अभिमान विरोध अकारनहीं।
लघु जीवन संबतु पंच दसा।कलपांत न नास गुमानु असा।
अर्थ : लोग अनेक बिमारियों से ग्रसित बिना कारण घमंड एवं विरोध करने बाले अल्प आयु किंतु घमंड ऐसा कि वे अनेक कल्पों तक उनका नाश नही होगा।ऐसा कलियुग का प्रभाव होगा।
78.
➡ अबला कच भूसन भूरि छुधा।धनहीन दुखी ममता बहुधा।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।मति थोरि कठोरि न कोमलता।
अर्थ : स्त्रियों के बाल हीं उनके आभूसन होते हैं।उन्हें भूख बहुत लगती है। वे धनहीन एवं अनेकों तरह की ममता रहने के कारण दुखी रहती है। वे मूर्ख हैं पर सुख चाहती हैं।धर्म में उनका तनिक भी प्रेम नही है। बुद्धि की कमी एवं कठोरता रहती है-कोमलता नहीं रहती है।
79.
➡ तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत भख दान
देव न बरखहिं धरनी बए न जामहिं धान।
अर्थ : आदमी जप तपस्या ब्रत यज्ञ दान के धर्म तामसी भाव से करेंगें। देवता पृथ्वी पर जल नही बरसाते हैं और बोया हुआ धान अन्नभी नहीं उगता है।
80.
➡ सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेश पाखंड
मान मोह भारादि मद ब्यापि रहे ब्रम्हंड।
अर्थ : कलियुग में छल कपट हठ अभिमान पाखंड काम क्रोध लोभ और घमंड पूरे संसार में ब्याप्त हो जाते हैं।
81.
➡ कवि बृंद उदार दुनी न सुनी।गुन दूसक ब्रात न कोपि गुनी।
कलि बारहिं बार दुकाल परै।बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।
अर्थ : कवि तो झुंड के झुंड हो जायेंगें पर संसार में उनके गुण का आदर करने बाला नहीं होगा। गुणी में दोश लगाने बाले भी अनेक होंगें।कलियुग में अकाल भी अक्सर पड़ते हैं और अन्न पानी बिना लोग दुखी होकर खूब मरते हैं।
82.
➡ धनवंत कुलीन मलीन अपी।द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।
नहि मान पुरान न बेदहिं जो।हरि सेवक संत सही कलि सो।
अर्थ : नीच जाति के धनी भी कुलीन माने जाते हैं। ब्राम्हण का पहचान केवल जनेउ रह गया है। नंगे बदन का रहना तपस्वी की पहचान हो गई है। जो वेद पुराण को नही मानते वे हीं इस समय भगवान के भक्त और सच्चे संत कहे जाते हैं।
83.
➡ ससुरारि पिआरि लगी जब तें।रिपु रूप कुटुंब भये तब तें।
नृप पाप परायन धर्म नही।करि दंड बिडंब प्रजा नित हीं।
अर्थ : ससुराल प्यारी लगने लगती है और सभी पारिवारिक संबंधी शत्रु रूप हो जाते हैं। राजा पापी हो जाते हैं एवं प्रजा को अकारण हीं दण्ड देकर उन्हें प्रतारित किया करते हैं।
84.
➡ कुलवंति निकारहिं नारि सती।गृह आनहि चैरि निवेरि गती।
सुत मानहि मातु पिता तब लौं।अबलानन दीख नहीं जब लौं।
अर्थ : वंश की लाज रखने बाले सती स्त्री को लोग घर से बाहर कर देते हैं और किसी कुलटा दासी को घर में रख लेते हैं। पुत्र माता पिता को तभी तक सम्मान देते हैं जब तक उन्हें विवाहोपरान्त अपने स्त्री का मुॅह नहीं दिख जाता है।
85.
➡ बहु दाम सवाॅरहि धाम जती।बिशया हरि लीन्हि न रही बिरती।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।कलि कौतुक तात न जात कही।
अर्थ : सन्यायी अपने घर को बहुुत पैसा लगाकर सजाते हैं कारण उनमें वैराग्य नहीं रह गया है।उन्हें सांसारिक भेागों ने घेर लिया है। अब गृहस्थ दरिद्र और तपस्वी धनबान बन गये हैं।कलियुग की लीला अकथनीय है।
86.
➡ भए वरन संकर कलि भिन्न सेतु सब लोग
करहिं पाप पावहिं दुख भय रूज सोक वियोग।
अर्थ : इस युग में सभी लोग वर्णशंकर एवं अपने धर्म विवेक से च्युत होकर अनेकानेक पाप करते हैं तथा दुख भय शोक और वियोग का दुख पाते हैं।
87.
➡ सुद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।बैठि बरासन कहहिं पुराना।
सब नर कल्पित करहिं अचारा।जाइ न बरनि अनीति अपारा।
अर्थ : शुद्र अनेक प्रकार के जप तप व्रत करते हैं और उॅचे आसन पर बैठकरपुराण कहते हैं।सबलोग मनमाना आचरण करते हैं। अनन्त अन्याय का वर्णन नही किया जा सकता है।
88.
➡ ते विप्रन्ह सन आपु पुजावहि।उभय लोक निज हाथ नसावहिं।
विप्र निरच्छर लोलुप कामी।निराचार सठ बृसली स्वामी।
अर्थ : वे स्वयं को ब्राम्हण से पुजवाते हैं और अपने हीं हाथों अपने सभी लोकों को बर्बाद करते हैं। ब्राम्हण अनपट़ लोभी कामी आचरणहीन मूर्ख एवं नीची जाति की ब्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं।
89.
➡ जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुइ्र्र गृह संपति नासी।मूड़ मुड़ाई होहिं संन्यासी।
अर्थ : तेली कुम्हार चाण्डाल भील कोल एवं कलवार जो नीच वर्ण के हैं स्त्री के मृत्यु पर या घर की सम्पत्ति नश्ट हो जाने पर सिर मुड़वाकर सन्यासी बन जाते हैं।
90.
➡ आपु गए अरू तिन्हहु धालहिं।जे कहुॅ सत मारग प्रतिपालहिं।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।परहिं जे दूसहिं श्रुति करि तरका।
अर्थ : वे खुद तो बर्बाद रहते हैं और जो सन्मार्ग का पालन करते हैं उन्हें भी बर्बाद करने का प्रयास करते हैं।
वे तर्क में वेद की निंदा करते हैं और अनेकों जीवन तक नरक में पड़े रहते हैं।
91.
➡ पर त्रिय लंपट कपट सयाने।मोह द्रेाह ममता लपटाने।
तेइ अभेदवादी ग्यानी नर।देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।
अर्थ : जो अन्य स्त्रियों में आसक्त छल कपट में चतुर मोह द्रोह ममता में लिप्त होते हैं वे हीं अभेदवादी ज्ञान कहे जाते हैं।कलियुग का यही चरित्र देखने में आता है।
92.
➡ बादहिं सुद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि
जानइ ब्रम्ह सो विप्रवर आॅखि देखावहिं डाटि।
अर्थ : शुद्र ब्राम्हणों से अनर्गल बहस करते हैं।वे अपने को उनसे कम नही मानते। जो ब्रम्ह को जानता है वही उच्च ब्राम्हण है ऐसा कहकर वे ब्राम्हणों को डाॅटते हैं।
93.
➡ ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं विप्र गुर घात।
अर्थ : स्त्री पुरूस ब्रह्म ज्ञान के अलावे अन्य बात नही करते लेकिन लोभ में कौड़ियों के लिये ब्राम्हण और गुरू की हत्या कर देते हैं।
94.
➡ हरइ सिश्य धन सोक न हरई।सो गुर घोर नरक महुॅ परई
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं।उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
अर्थ : जो गुरू अपने चेला का धन हरण करता है लेकिन उसके दुख शोक का नाश नही करता-वह घेार नरक में जाता है। माॅ बाप बच्चों को मात्र पेट भरने की शिक्षा धर्म सिखलाते हैं।
95.
➡ सौभागिनीं विभूसन हीना।विधवन्ह के सिंगार नवीना।
गुर सिस बधिर अंध का लेखा।एक न सुनइ एक नहि देखा।
अर्थ : सुहागिन स्त्रियों के गहने नही रहते पर विधबायें रोज नये श्रृंगार करती हैं। चेला और गुरू में वहरा और अंधा का संबंध रहता है। शिश्य गुरू के उपदेश को नही सुनता और गुरू को ज्ञान की दृश्टि प्राप्त नही रहती है।
96.
➡ सब नर काम लोभ रत क्रोधी।देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।भजहिं नारि पर पुरूस अभागी।
अर्थ : सभी नर कामी लोभी और क्रोधी रहते हैं।देवता ब्राहमण वेद और संत के विरोधी होते हैं। अभागी औरतें अपने गुणी सुंदर पति को त्यागकर दूसरे पुरूस का सेवन करती है।
97.
➡ नारि बिबस नर सकल गोसाई।नाचहिं नट मर्कट कि नाई।
सुद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।मेलि जनेउ लेहिं कुदाना।
अर्थ : सभी आदमी स्त्रियों के वश में रहते हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह नाचते रहते हैं। ब्राहमनों को शुद्र ज्ञान का उपदेश देते हैं और गर्दन में जनेउ पहन कर गलत तरीके से दान लेते हैं।
98.
➡ जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ
मन क्रम वचन लवार तेइ वकता कलिकाल महुॅ।
अर्थ : जो अपने कर्मों से दूसरों का अहित करते हैं उन्हीं का गौरव होता है और वे हीं इज्जत पाते हैं। जो मन वचन एवं कर्म से केवल झूठ बकते रहते हैं वे हीं कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।
99.
➡ असुभ वेस भूसन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।
अर्थ : जो अशुभ वेशभूसा धारण करके खाद्य अखाद्य सब खाते हैं वे हीं सिद्ध योगी तथा कलियुग में पूज्य माने जाते हैं।
100.
➡ निराचार जो श्रुतिपथ त्यागी।कलिजुग सोइ ग्यानी सो विरागी
जाकें नख अरू जटा बिसाला ।सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
अर्थ : हीन आचरण करने बाले जो बेदों की बातें त्याग चुके हैं वही कलियुग में ज्ञानी और वैरागी माने जाते हैं।
जिनके नाखून और जटायें लम्बी हैं-वे कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी हैं।
101.
➡ सोइ सयान जो परधन हारी।जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कह झूॅठ मसखरी जाना।कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।
अर्थ : जो दूसरों का धन छीनता है वही होशियार कहा जाता है। घमंडी अहंकारी को हीं लोग अच्छे आचरण बले मानते हैं। बहुत झूठ बोलने बाले को हीं-हॅसी दिलग्गी करने बाले को हीं गुणी आदमी समझा जाता है।
102.
➡ मारग सोइ जा कहुॅ जोइ भावा।पंडित सोइ जो गाल बजाबा।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोईं।ता कहुॅ संत कहइ सब कोई।
अर्थ : जिसे जो मन को अच्छा लगता है वही अच्छा रास्ता कहता है। जो अच्छा डंंग मारता है वही पंडित कहा जाता है। जो आडंबर और घमंड में रहता है उसी को लोग संत कहते हैं।
103.
➡ बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।
अर्थ : कलियुग में वर्णाश्रम का धर्म नही रहता हैं।चारों आश्रम भी नहीं रह जाते। सभी नर नारी बेद के बिरोधी हो जाते हैं।ब्राहमण वेदों के विक्रेता एवं राजा प्रजा के भक्षक होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नही मानता है।
104.
➡ भए लोग सब मोहबस लेाभ ग्रसे सुभ कर्म
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउॅ कछुक कलिधर्म।
अर्थ : सब लोग मोहमाया के अधीन रहते हैं। अच्छे कर्मों को लोभ ने नियंत्रित कर लिया है। भगवान के भक्तों को कलियुग के धर्मों को जानना चाहिये।
105.
➡ कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।
अर्थ : कलियुग के पापों ने सभी धर्मों को ग्रस लिया है। धर्म ग्रथों का लोप हो गया है। घमंडियों ने अपनी अपनी बुद्धि में कल्पित रूप से अनेकों पंथ बना लिये हैं।
106.
➡ सो कलिकाल कठिन उरगारी।पाप परायन सब नरनारी।
अर्थ : कलियुग का समय बहुतकठिन है।इसमें सब स्त्री पुरूस पाप में लिप्त रहते हैं।
Tulsidas Dohe On Self Experience - तुलसीदास के दोहे आत्म अनुभव पर
107.
➡ मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।
काम वात कफ लोभ अपारा।क्रोध पित्त नित छाती जारा।
अर्थ : अज्ञान सभी रोगों की जड़ है।इससे बहुत प्रकार के कश्ट उत्पन्न होते हैं। काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है।क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है।
108.
➡ नहिं दरिद्र सम दुख जग माॅहीं।संत मिलन सम सुख जग नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया।संत सहज सुभाउ खगराया।
अर्थ : संसार में दरिद्रता के समान दुख एवं संतों के साथ मिलन समान सुख नहीं है। मन बचन और शरीर से दूसरों का उपकार करना यह संत का सहज स्वभाव है।
109.
➡ ग्यान पंथ कृपान कै धारा ।परत खगेस होइ नहिं बारा।
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई।सो कैवल्य परम पद लहईं
अर्थ : ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार की धार के जैसा है।इस रास्ते में भटकते देर नही लगती। जो ब्यक्ति बिना विघ्न बाधा के इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है वह मोक्ष के परम पद को प्राप्त करता है।
110.
➡ कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक।
अर्थ : सच्चा ज्ञान कहने समझने में मुशकिल एवं उसे साधने में भी कठिन है। यदि संयोग से कभी ज्ञान हो भी जाता है तो उसे बचाकर रखने में अनेकों बाधायें हैं।
111.
➡ सोहमस्मि इति बृति अखंडा।दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।तब भव मूल भेद भ्रमनासा।
अर्थ : मैं ब्रम्ह हूॅ-यह अनन्य स्वभाव की प्रचंड लौ है। जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है
तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है।
112.
➡ जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहि प्रीती।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई।जिमि खगपति जल कै चिकनाई।
अर्थ : किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की कमी से प्रेम नहीं होता।प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है।
113.
➡ सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।जद्यपि सो सब भाॅति अपाना।
एहि बिधि जीव चराचर जेते।त्रिजग देव नर असुर समेते।
अर्थ : तब वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्यारा होता है भले हीं वह सब तरह से मूर्ख हीं क्यों न हो। इसी प्रकार पशु पक्षी देवता आदमी एवं राक्षसों में भी जितने चेतन और जड़ जीव हैं।
114.
➡ कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई।सब पर पितहिं प्रीति समहोई।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।सपनेहुॅ जान न दूसर धर्मा।
अर्थ : कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है।पिता सब पर समान प्रेम करते हैं। पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता।
115.
➡ एक पिता के बिपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता।कोउ घनवंत सूर कोउ दाता।
अर्थ : एक पिता के अनेकों पुत्रों में उनके गुण और आचरण भिन्न भिन्न होते हैं। कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है।
116.
➡ नौका रूढ़ चलत जग देखा।अचल मोहबस आपुहिं लेखा।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी।कहहिं परस्पर मिथ्यावादी।
अर्थ : नाव पर चढ़ा हुआ आदमी दुनिया को चलता दिखाई देता है लेकिन वह अपने को स्थिर अचल समझता है। बच्चे गोलगोल घूमते है लेकिन घर वगैरह नहीं घूमते।लेकिन वे आपस में परस्पर एक दूसरे को झूठा कहते हैं।
117.
➡ नयन दोस जा कहॅ जब होइ्र्र।पीत बरन ससि कहुॅ कह सोई।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा।सो कह पच्छिम उपउ दिनेसा।
अर्थ : जब किसी को आॅखों में दोस होता है तो उसे चन्द्रमा पीले रंग का दिखाई पड़ता है। जब पक्षी के राजा को दिशाभ्रम होता है तो उसे सूर्य पश्चिम में उदय दिखाई पड़ता है।
118.
➡ संसार महॅ त्रिविध पुरूश पाटल रसाल पनस समा
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं।
अर्थ : संसार में तीन तरह के लोग होते हैं-गुलाब आम और कटहल के जैसा। एक फूल देता है-एक फूल और फल दोनों देता है और एक केवल फल देता है। लोगों मे एक केवल कहते हैं-करते नहीं।दूसरे जो कहते हैं वे करते भी हैं और तीसरे कहते नही केवल करते हैं।
119.
➡ पर उपदेश कुशल बहुतेरे।जे आचरहिं ते नर न घनेरे।
अर्थ : दूसरों को उपदेश शिक्षा देने में बहुत लोग निपुण कुशल होते हैं परन्तु उस शिक्षा का आचरण पालन करने बाले बहुत कम हीं होते हैं।
120.
➡ काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।
अर्थ : करोड़ों उपाय करने पर भी केला काटने पर हीं फलता है। नीच आदमी विनती करने से नहीं मानता है-वह डाॅटने पर हीं झुकता- रास्ते पर आता हैं।
121.
➡ ममता रत सन ग्यान कहानी।अति लोभी सन विरति बखानी।
क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा।उसर बीज बएॅ फल जथा।
अर्थ : मोह माया में फॅसे ब्यक्ति से ज्ञान की कहानी अधिक लोभी से वैराग्य का वर्णन क्रोधी से शान्ति की बातें और कामुक से ईश्वर की बात कहने का वैसा हीं फल होता है जैसा उसर खेत में बीज बोने से होता है।
122.
➡ सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती।सहज कृपन सन सुंदर नीती।
अर्थ : मूर्खसे नम्रता दुश्ट से प्रेम कंजूस से उदारता के सुंदर नीति विचार ब्यर्थ होते हैं।
123.
➡ कादर मन कहुॅ एक अधारा।दैव दैव आलसी पुकारा।
अर्थ : ईश्वर का क्या भरोसा।देवता तो कायर मन का आधार है। आलसी लोग हीं भगवान भगवान पुकारा करते हैं।
124.
➡ साधु अवग्या तुरत भवानी।कर कल्यान अखिल कै हानी।
अर्थ : साधु संतों का अपमान तुरंत संपूर्ण भलाई का अंत नाश कर देता है।
125.
➡ उमा संत कइ इहइ बड़ाई।मंद करत जो करइ भलाई।
अर्थ : संत की यही महानता है कि वे बुराई करने बाले पर भी उसकी भलाई हीं करते हैं।
126.
➡ भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
अर्थ : सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये। किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।
127.
➡ हित मत तोहि न लागत कैसे।काल विबस कहुॅ भेसज जैसे।
अर्थ : भलाई की बातें उसी प्रकार अच्छी नहीं लगती है जैसे मृत्यु के अघीन रहने बाले ब्यक्ति को दवा अच्छी नहीं लगती है।
128.
➡ भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
अर्थ : सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये। किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।
129.
➡ कबहुॅ दिवस महॅ निविड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।
अर्थ : बादलों के कारण कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रगट हो जाते हैं।जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नश्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है।
130.
➡ नवनि नीच कै अति दुखदाई।जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
भयदायक खल कै प्रिय वानी ।जिमि अकाल के कुसुम भवानी।
अर्थ : नीच ब्यक्ति की नम्रता बहुत दुखदायी होती हैजैसे अंकुश धनुस साॅप और बिल्ली का झुकना।दुश्ट की मीठी बोली उसी तरह डरावनी होती है जैसे बिना ऋतु के फूल।
131.
➡ रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अर्थ : शत्रु रोग अग्नि पाप स्वामी एवं साॅप को कभी भी छोटा मानकर नहीं समझना चाहिये।
132.
➡ सेवक सुख चह मान भिखारी ।व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी।नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी।
अर्थ : सेवक सुख चाहता है भिखारी सम्मान चाहता है। व्यसनी धन और ब्यभिचारी अच्छी गति लोभी यश और अभिमानी चारों फल अर्थ काम धर्म और मोक्ष चाहते हैं तो यह असम्भव को सम्भव करना होगा।
133.
➡ मैं अरू मोर तोर तैं माया।जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया।
अर्थ : में और मेरा तू और तेरा-यही माया है जिाने सम्पूर्ण जीवों को बस में कर रखा है।
134.
➡ कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
अर्थ : कलियुग अनेक कठिन पापों का भंडार है जिसमें धर्म ज्ञान योग जप तपस्या आदि कुछ भी नहीं है।
135.
➡ धीरज धर्म मित्र अरू नारी।आपद काल परिखिअहिं चारी।
बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना।अंध बधिर क्रोधी अतिदीना।
अर्थ : धैर्य धर्म मित्र और स्त्री की परीक्षाआपद या दुख के समय होती हैै। बूढ़ा रोगी मूर्ख गरीब अन्धा बहरा क्रोधी और अत्यधिक गरीब सबों की परीक्षा इसी समय होती है।
136.
➡ सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
अर्थ : बिना कारण हीं दूसरों की भलाई करने बाले बुद्धिमान और श्रेश्ठ मालिक से बहुत कहना गल्ती होता है।
137.
➡ कसे कनकु मनि पारिखि पाएॅं। पुरूश परिखिअहिं समयॅ सुभाएॅ।
अर्थ : सोना कसौटी पर कसने और रत्न जौहरी के द्वारा हीं पहचाना जाता है। पुरूश की परीक्षा समय आने पर उसके स्वभाव चरित्र से होती है।
138.
➡ सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा ।बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा।
तो सृजि पालई हरइ बहोरी।बालकेलि सम बिधि मति भोरी।
अर्थ : ईश्वर की चाल अत्यंत विपरीत एवं विचित्र है। वह संसार की सृश्टि उत्पन्न करता और पालन और फिर संहार भी कर देता है। ईश्वर की बुद्धि बच्चों जैसी भोली विवेक रहित हैं।
139.
➡ सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल
जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।
अर्थ : अमृत मात्र सुनने की बात है कितुं जहर तो सब जगह प्रत्यक्षतः देखे जा सकते हैं। कौआ उल्लू और बगुला तो जहाॅ तहाॅ दिखते हैं परन्तु हॅस तो केवल मानसरोवर में हीं रहते हैं।
140.
➡ विशई साधक सिद्ध सयाने।त्रिविध जीव जग बेद बखाने।
अर्थ : संसारी साधक और ज्ञानी सिद्ध पुरूश-इस दुनिया में इसी तीन प्रकार के लोग बेदों ने बताये हैं।
141.
➡ अनुचित उचित काजु किछु होउ।समुझि करिअ भल कह सब कोउ।
सहसा करि पाछें पछिताहीं।कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।
अर्थ : किसी भी काम में उचित अनुचित विचार कर किया जाये तो सब लोग उसे अच्छा कहते हैं। बेद और विद्वान कहते हैं कि जो काम विना विचारे जल्दी में करके पछताते हैं-वे बुद्धिमान नहीं हैं।
142.
➡ लातहुॅ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।
अर्थ : धूल जैसा नीच भी पैर मारने पर सिर चढ़ जाता है।
143.
➡ रिपु रिन रंच न राखब काउ।
अर्थ : शत्रु और ऋण को कभी भी शेस नही रखना चाहिये। अल्प मात्रा में भी छोड़ना नही चाहिये।
144.
➡ जग बौराइ राज पद पाएॅ।
अर्थ : राजपद प्राप्त होने पर सारा संसार मदोन्नमत्त हो जाता है।
145.
➡ विशय जीव पाइ प्रभुताई।मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।
अर्थ : मूर्ख साॅसारिक जीव प्रभुता पा कर मोह में पड़कर अपने असली स्वभाव को प्रकट कर देते हैं।
146.
➡ सुनहुॅ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ।
अर्थ : मुनिनाथ ने अत्यंत दुख से भरत से कहा कि जीवन में लाभ नुकसान जिंदगी मौत प्रतिश्ठा या अपयश सभी ईश्वर के हाथों में है।
147.
➡ बिधिहुॅ न नारि हृदय गति जानी।सकल कपट अघ अवगुन खानी।
अर्थ : स्त्री के हृदय की चाल ईश्वर भी नहीं जान सकते हैं। वह छल कपट पाप और अवगुणों की खान है।
148.
➡ जोग वियोग भोग भल मंदा।हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।
जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू।संपति बिपति करमु अरू कालू।
अर्थ : मिलाप और बिछुड़न अच्छे बुरे भोग शत्रु मित्र और तटस्थ -ये सभी भ्रम के फाॅस हैं।जन्म मृत्यु संपत्ति विपत्ति कर्म और काल-ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं।
149.
➡ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।निज कृत करम भोग सबु भ्राता।
अर्थ : कोई भी किसी को दुख सुख नही दे सकता है सबों को अपने हीं कर्मों का फल भेागना पड़ता है।
150.
➡ सुभ अरू असुभ करम अनुहारी।ईसु देइ फल हृदय बिचारी।
करइ जो करम पाव फल सोई।निगम नीति असि कह सबु कोई।
अर्थ : ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है। ऐसा हीं वेद नीति और सब लोग कहते हैं।
151.
➡ जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते।पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।पति विहीन सबु सोक समाजू।
अर्थ : पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं। शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं।
152.
➡ काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ।
अर्थ : अग्नि किसे नही जला सकती है।समुद्र में क्या नही समा सकता है। अवला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है। संसार में काल किसे नही खा सकता है।
153.
➡ सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ।सब बिधि अगहु अगाध दुराउ।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई।जानि न जाइ नारि गति भाई।
अर्थ : स्त्री का स्वभाव समझ से परे अथाह और रहस्यपूर्ण होता है। कोई अपनी परछाई भले पकड ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है।
154.
➡ दुइ कि होइ एक समय भुआला।हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला।
दानि कहाउब अरू कृपनाई।होइ कि खेम कुसल रीताई।
अर्थ : ठहाका मारकर हॅसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एकहीं समय मेंसम्भव नहीं है। दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कथमपि सम्भव नही है।
155.
➡ कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।
अर्थ : किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नश्ट कर देती है।
156.
➡ सूल कुलिस असि अॅगवनिहारे।ते रतिनाथ सुमन सर मारे।
अर्थ : जो ब्यक्ति त्रिशूल बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुश्पवान से मारे जाते हैं।
157.
➡ अरि बस दैउ जियावत जाही।मरनु नीक तेहि जीवन चाहीै
अर्थ : ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।
158.
➡ रहा प्रथम अब ते दिन बीते।समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।
अर्थ : पहले बाली बात बीत चुकी है-समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।
159.
➡ तसि मति फिरी अहई जसि भावी।
अर्थ : जैसी भावी होनहार होती है-वैसी हीं बुद्धि भी फिर बदल जाती है।
160.
➡ कोउ नृप होउ हमहिं का हानि।चेरी छाडि अब होब की रानी।
अर्थ : कोई भी राजा हो जाये-हमारी क्या हानि है। दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउॅगा।
161.
➡ काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि
तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।
अर्थ : भरत की माॅ हॅसकर कहती हैं-कानों लंगरों और कुवरों को कुटिल और खराब चालचलन बाला जानना चाहिये।
162.
➡ सेवक सदन स्वामि आगमनु।मंगल मूल अमंगल दमनू।
अर्थ : सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और अमंगलों का नाश करने बाला होता है।
163.
➡ टेढ जानि सब बंदइ काहू।वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।
अर्थ : टेढा जानकर लोग किसी भी ब्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं। टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है।
164.
➡ जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी।नहि पावहिं परतिय मनु डीठी।
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं।ते नरवर थोरे जग माहीं।
अर्थ : ऐसे बीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृश्टि कभी नहीं जाता और भिखारी कभी जिनके यहाॅ से खाली हाथ नहीं लौटते ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं।
165.
➡ सुख संपति सुत सेन सहाई।जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।
नित नूतन सब बाढत जाई।जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।
अर्थ : सुख धन संपत्ति संतान सेना मददगार विजय प्रताप बुद्धि शक्ति और प्रशंसा -जैसे जैसे नित्य बढते हैं-वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता हैै।
166.
➡ सासति करि पुनि करहि पसाउ।नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
अर्थ : अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः बाद में सेवक पर कृपा करते हैं।
167.
➡ भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।
अर्थ : जब इ्र्रश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान पिता काल के समान और रस्सी साॅप के समान हो जाती है।
168.
➡ रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।
अर्थ : बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये। राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है।
169.
➡ जद्यपि जग दारून दुख नाना।सब तें कठिन जाति अवमाना।
अर्थ : इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है।
170.
➡ पर संपदा बिनासि नसाहीं।जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।
दुश्ट उदय जग आरति हेतू।जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।
अर्थ : वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नश्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करके ओला भी नाश हो जाता है।दुश्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है।
171.
➡ सन इब खल पर बंधन करई ।खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।अहि मूशक इब सुनु उरगारी।
अर्थ : कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाॅधते हैं।जूट बाॅधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है। वह दुख सहकर मर जाता है।दुश्ट बिना स्वार्थ के साॅप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं।
172.
➡ उदासीन नित रहिअ गोसांई।खल परिहरिअ स्वान की नाई।
अर्थ : दुश्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये।दुश्ट को कुत्ते की तरह दूर से हीं त्याग देना चाहिये।
173.
➡ सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा।बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।
कवि कोविद गावहिं असि नीति।खल सन कलह न भल नहि प्रीती।
अर्थ : बुद्धिमान मनुश्य नीच की संगति नही करते हैं।कवि एवं पंडित नीति कहते हैं कि दुश्ट से न झगड़ा अच्छा है न हीं प्रेम।
174.
➡ रज मग परी निरादर रहई।सब कर पद प्रहार नित सहई।
मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई।पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।
अर्थ : धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सबों के पैर की चोट सहती रहती है। लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है। बाद में वह राजाओं के आॅखों और मुकुटों पर पड़ती है।
175.
➡ जेहि ते नीच बड़ाई पावा।सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा।
धूम अनल संभव सुनु भाई।तेहि बुझाव घन पदवी पाई।
अर्थ : नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश करता है।आग से पैदा धुआॅ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है।
176.
➡ भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।सत संगति संसृति कर अंता।
अर्थ : भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है।लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है। पुनः विना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नही मिलती है।संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है।
177.
➡ अवगुन सिधुं मंदमति कामी।वेद विदूसक परधन स्वामी।
विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा।दंभ कपट जिएॅ धरें सुवेसा।
अर्थ : वे दुर्गुणों के सागर मंदबुद्धि कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला जबर्दस्ती दूसरों का धन लूटने बाला द्रोही विसेसतः ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं। उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिवास बहुत सुन्दर रहता है।
178.
➡ मातु पिता गुर विप्र न मानहिं।आपु गए अरू घालहिं आनहि।
करहिं मोहवस द्रोह परावा।संत संग हरि कथा न भावा।
अर्थ : वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते।खुद तो नश्ट रहते हीं हैं दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं।मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है।
179.
➡ जब काहू कै देखहिं बिपती।सुखी भए मानहुॅ जग नृपति।
स्वारथ रत परिवार विरोधी।लंपट काम लोभ अति क्रोधी।
अर्थ : वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे हीं दुनिया के राजा हों। वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं।
180.
➡ लोभन ओढ़न लोभइ डासन।सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना।
काहू की जौं सुनहि बड़ाई।स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।
अर्थ : लोभ लालच हीं उनका ओढ़ना और विछावन होता है।वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं। उन्हें यमलोक का डर नहीं होता। किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है।
181.
➡ पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद
तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद।
अर्थ : वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं। वे पामर और पापयुक्त मनुश्य शरीर में राक्षस होते हैं।
182.
➡ झूठइ लेना झूठइदेना।झूठइ भोजन झूठ चवेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा।खाइ महा अति हृदय कठोरा।
अर्थ : दुश्ट का लेनादेना सब झूठा होता है।उसका नाश्ता भोजन सब झूठ हीं होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विशधर साॅप को भी खा जाता है। इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं।
183.
➡ काम क्रोध मद लोभ परायन।निर्दय कपटी कुटिल मलायन।
वयरू अकारन सब काहू सों।जो कर हित अनहित ताहू सों।
अर्थ : वे काम क्रोध अहंकार लोभ के अधीन होते हैं।वे निर्दय छली कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं। वे बिना कारण सबसे दुशमनी रखते हैं।जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई हीं करते हैं।
184.
➡ खलन्ह हृदयॅ अति ताप विसेसी ।जरहिं सदा पर संपत देखी।
जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई।हरसहिं मनहुॅ परी निधि पाई।
अर्थ : दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है। वे दुसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं। दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैंजैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो।
185.
➡ सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ।भ्ूालेहुॅ संगति करिअ न काउ।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।
अर्थ : अब असंतों का गुण सुनें।कभी भूलवश भी उनका साथ न करें। उनकी संगति हमेशा कश्टकारक होता है।
खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है।
186.
➡ तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
अर्थ : यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता।
187.
➡ को न कुसंगति पाइ नसाई।रहइ न नीच मतें चतुराई।
अर्थ : खराब संगति से सभी नश्ट हो जाते हैं। नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई बुद्धि भ्रश्ट हो जाती हैं ।
188.
➡ ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग।
अर्थ : ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र -ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं। ज्ञानी और समझदार लोग हीं इसे जान पाते हैं।
189.
➡ बैनतेय बलि जिमि चह कागू।जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू।
जिमि चह कुसल अकारन कोही।सब संपदा चहै शिव द्रोही।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई।अकलंकता कि कामी लहई।
अर्थ : यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे-अकारण क्रोध करने बाला अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने बाला सब तरह की संपत्ति चाहे-लोभी अच्छी कीर्ति और कामी पुरूश बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छायें ब्यर्थ हैं।
190.
➡ बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं।गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।
जलधि अगाध मौलि बह फेन।संतत धरनि धरत सिर रेनू।
अर्थ : बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं।पहाड के सिर में हमेशा घास रहता है। अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है।
191.
➡ तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
अर्थ : सुंदर वेशभूशा देखकर मूर्ख हीं नही चतुर लोग भी धोखा में पर जाते हैं। मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन साॅप का खाता है।
192.
➡ सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई।सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं।रवि पावक सुरसरि की नाई।
अर्थ : गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता। सूर्य आग और गंगा की तरह समर्थ ब्यक्ति को कोई दोश नही लगाता है।
193.
➡ कठिन कुसंग कुपंथ कराला।तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला।
गृह कारज नाना जंजाला।ते अति दुर्गम सैल विसाला।
अर्थ : खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है।उन कुसंगियों के बोल बाघ सिह और साॅप की भाॅति हैं।घर के कामकाज में अनेक झंझट हीं बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं।
194.
➡ लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल।
अर्थ : क्रोध सभी पापों की जड है। क्रोध में मनुश्य सभी अनुचित काम कर लेते हैं और संसार में सबका अहित हीं करते हैं।
195.
➡ सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू
विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु।
अर्थ : बीर युद्ध में बीरता का कार्य करते हैं।कहकर नहीं जनाते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर हीं अपने प्रताप की डींग हाॅकते हैं।
196.
➡ तेहिं ते कहहिं संत श्रुति टेरें।परम अकिंचन प्रिय हरि केरें।
अर्थ : संत और वेद पुकार कर कहते हैं कि अत्यधिक घमंड रहित माया मोह और मान प्रतिश्ठा को त्याग देने बाले हीं ईश्वर को प्रिय होते हैं।
197.
➡ बड अधिकार दच्छ जब पावा।अति अभिमानु हृदय तब आबा।
नहि कोउ अस जनमा जग माहीं।प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं।
अर्थ : जब दक्ष को प्रजापति का अधिकार मिला तो उसके मन में अत्यधिक घमंड आ गया। संसार में ऐसा किसी ने जन्म नही लिया जिसे अधिकार पाकर घमंड नही हुआ हो।
198.
➡ बन बहु विशम मोह मद माना।नदी कुतर्क भयंकर नाना।
अर्थ : मोह घमंड और प्रतिश्ठा बीहर जंगल और कुतर्क भयावह नदि हैं।
199.
➡ ता कहुॅ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल
तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।
अर्थ : जिसपर भगवान खुश हों उसके लिये कुछ भी कठिन नहीं है। ईश्वर के प्रभाव से रूई भी बड़वानल को जला सकमी है। असम्भव भी सम्भव हो जाता है।
200.
➡ पर हित लागि तजई जो देही।संतत संत प्रसंसहि तेहीं
अर्थ : दूसरो की भलाई के लिये जो अपना शरीर तक त्याग देता है-संत लोग सदा हीं उसकी प्रशंशा करते हैं।
201.
➡ मातु पिता गुर प्रभु के वाणी।विनहिं विचार करिअ सुभ जानी।
अर्थ : माता पिता गुरू और स्वामी की बातों को बिना सोच विचार कर कल्याणकारी जानकर मानना चाहिये।
202.
➡ कह मुनीस हिमवंत सुनु जो विधि लिखा लिलार
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनहार।
अर्थ : ईश्वर ने जो कपाल भाग्य में लिख दिया है उसे देवता राक्षस आदमी या नाग कोई भी नही मिटा सकता है।
203.
➡ का बरसा सब कृसी सुखाने।समय चुकें पुनि का पछताने।
अर्थ : सारा कृसी सूख जाने पर वर्शा का क्या लाभ?समय बीत जाने पर पुनः पछताने से क्या लाभ होगा।
204.
➡ तृशित बारि बिनु जो तनु त्यागा।मुएॅ करइ का सुधा तरागा।
अर्थ : प्यासा आदमी पानी के विना शरीर छोड दे तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?
205.
➡ जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू।सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।
अर्थ : जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह उसे मिलता हीं हैं-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
206.
➡ जिन्ह के रही भावना जैसी।प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।
अर्थ : जिनकी जैसी भावना होती है वे प्रभु की मूर्ति वैसी हीं देखते हैं।
207.
➡ ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुण नाम न रूप
भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप।
अर्थ : प्रभु ब्यापक अशरीर इच्छारहित अजन्मा निर्गुण तथा विना नाम एवं रूप बाले हैं और भक्तों के लिये अनेकों प्रकार की अनुपम लीलायें करते हैं।
208.
➡ बिप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।
अर्थ : ब्राम्हण गाय देवता और संतों के हित हेतु भगवान ने आदमी के रूप में अवतार लिया है। वे समस्त माया और इन्द्रियों से परे हैं। उनका शरीर उन्हीं की इच्छा से बना है।
209.
➡ अग जगमय सब रहित विरागी।प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।
अर्थ : प्रभु सम्पूर्ण जगत में समस्त राग विराग से रहित होकर ब्याप्त हैं पर उसकी प्राप्ति के लिये साधन करना पड़ता है। ईश्वर प्राप्ति का साधन प्रेम है।
210.
➡ धरनि धरहिं मन धीर कह विरंचि हरि पद सुमिरू
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारून विपति।
अर्थ : पृथ्वी पर धीरज रखकर भगवान के चरण का स्मरण करो। प्रभु सभी लोगों की पीडा को जानते हैं और महान कश्ट एवं विपत्ति का नाश करते हैं।
211.
➡ बातुल भूत बिवस मतवारे।ते नहि बोलहिं बचन विचारे।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।
अर्थ : जो पागल उन्मादी और भूत के वशीभूत मतवाले हैंऔर नशे में चूर हैं वे कभी भी सोच विचार कर नही बोलते हैं। जिसने मोह माया की मदिरा पी ली है उनके कहने पर कभी कान ध्यान नही देना चाहिये।
212.
➡ प्रभु समरथ सर्वग्य सिव सकल कला गुण धाम
जोग ग्यान वैराग्य निधि प्रनत कलपतरू नाम।
अर्थ : ईश्वर सर्व सामथ्र्यवान सर्वग्य और कल्याणदायी हैं।वे सभी कलाओं और गुणों के निधान हैं।वे योग ज्ञान और वैराग्य के भंडार हैं।प्रभु का नाम शरणागतों के लिये कल्पतरू है।
213.
➡ सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।बिनु श्रम प्रवल मोह दलु जीती।
फिरत सनेहॅ मगन सुख अपने।नाम प्रसाद सोच नहि सपने।
अर्थ : भक्त प्रेमपूर्वक नाम के सुमिरण से बिना परिश्रम मोह माया की प्रवल सेना को जीत लेता है और प्रभु प्रेम में मग्न हो कर सुखी रहता है।नाम के फल से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नही होती।
214.
➡ संत हृदय नवनीत समाना।कहा कविन्ह परि कहै न जाना।
निज परिताप द्रवई नवनीता।पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।
अर्थ : संत का दिल मक्खन के जैसा होता है।लेकिन कवियों ने ठीक नहीं कहा है। मक्खन तो ताप से स्वयं को पिघलाता है किंतु संत तो दूसरों के दुख से पिघल जाते हैं।
215.
➡ संत बिटप सरिता गिरि धरनी।पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।
अर्थ : संत बृक्ष नदी पहाड़ एवं धरती-इन तमाम की क्रियायें दूसरों की भलाई के लिये होती है।
216.
➡ संत उदय संतत सुखकारी।बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।
परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा।
अर्थ : संतों का आना सर्वदा सुख देने बाला होता है जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय संसार को सुख देता है।
बेदों मे अहिंसा को परम धर्म माना गया है और दूसरों की निंदा के जैसा कोई भारी पाप नहीं है।
217.
➡ संत सहहिं दुख पर हित लागी।पर दुख हेतु असंत अभागी।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।पर हित निति सह विपति विसाला।
अर्थ : संत दूसरों की भलाई के लिये दुख सहते हैं एवं अभागे असंत दूसरों को दुखदेने के लिये होते हैं। संत भोज बृक्ष के समान कृपालु एवं दूसरों की भलाई के लिये अनेक कश्ट सहने के लिये भी तैयार रहते हैं।
218.
➡ निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज।
अर्थ : जिनके लिये निंदा और बड़ाई समान हो और जो ईश्वर के चरणों में ममत्व रखता हो वे अनेक गुणों के भंडार और सुख की राशि प्रभु को प्राणों के समान प्रिय हैं।
219.
➡ ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।जानेहुॅ तात संत संतत फुर।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।परूस बचन कबहूॅ नहि बोलहिं।
अर्थ : जो ब्यक्ति अपने मन बचन और कर्म इन्द्रियों का नियंत्रण रखता हो जो नियम और सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं हो और मुॅह से कभी कठोर वचन नहीं बोलता हो-इन सब लक्षणों बालेां को सच्चा संत मानना चाहिये।
220.
➡ बिगत काम मम नाम परायण।सांति विरति विनती मुदितायन।
सीतलता सरलता मयत्री।द्विज पद प्रीति धर्म जनपत्री।
अर्थ : उन्हें कोई इच्छा नहीं रहती।वे केवल प्रभु के नाम का मनन करते हैं। वे शान्ति वैराग्य विनयशीलता और प्रसन्नता के भंडार होते हैं। उनमें शीतलता सरलता सबके लिये मित्रता ब्राह्मनों के चरणों में प्रेम और धर्मभाव रहता है।
221.
➡ कोमल चित दीनन्ह पर दाया।मन बच क्रम मम भगति अमाया।
सबहिं मानप्रद आपु अमानी।भरत प्रान सम मम ते प्रानी।
अर्थ : संत का हृदय कोमल एवं गरीबों पर दयावान होता है एवं मन वचन और कर्म से वे ईश्वर में निश्कपट भक्ति रखते हैं। वे सबकी इज्जत करते हैं पर स्वयं इज्जत से इच्छारहित होते हैं। वे प्रभु को प्राणों से भी प्रिय होते हैं।
222.
➡ विशय अलंपट सील गुनाकर।पर दुख दुख सुख सुख पर।
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी।लोभा मरस हरस भय त्यागी।
अर्थ : संत सांसारिक चीजों मे लिप्त नहीं होकर शील और सदगुणों के खान होते हैं। उन्हें दुसरों के दुख देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। वे हमेशासमत्व भाव में रहते हैं।उनके मन में किसी के लिये शत्रुता नहीं रहती है। वे हमेशा घमंड रहित वैराग्य में लीन एवं लोभ क्रोध खुशी एवं डर से विलग रहते हैं।
223.
➡ ताते सुर सीसन्ह चट़त जग वल्लभ श्रीखंड
अनल दाहि पीटत घनहि परसु बदन यह दंड।
अर्थ : इसी कारण चन्दन संसार में प्रभु के मस्तक पर चट़ता है और संसार की प्रिय वस्तु है लेकिन कुल्हाड़ी को यह सजा मिलती है कि पहले उसे आग में जलाया जाता है एवं बाद में उसे भारी घन से पीटा जाता है।
224.
➡ संत असंतन्हि कै अस करनी।जिमि कुठार चंदन आचरनी।
काटइ परसु मलय सुनु भाई।निज गुण देइ सुगंध बसाई।
अर्थ : संत और असंतों के क्रियाकलाप ऐसे हैं जैसे कुल्हाड़ी और चंदन के आचरण होते हैं।कुल्हाड़ी चन्दन को काटता है लेकिन चन्दन उसे अपना गुण देकर सुगंध से सुगंधित कर देता है।
225.
➡ संतत के लच्छन सुनु भ्राता।अगनित श्रुति पुरान विख्याता।
अर्थ : हे भाई-संतों के गुण अनगिनत हैं जो बेदों और पुाणों में प्रसिद्य हैं।
226.
➡ संत संग अपवर्ग कर कामी भव कर पंथ
कहहिं संत कवि कोविद श्रुति पुरान सदग्रंथ।
अर्थ : संत की संगति मोक्ष और कामी ब्यक्ति का संग जन्म मृत्यु के बंधन में डालने बाला रास्ता है। संत कवि पंण्डित एवं बेद पुराण सभी ग्रंथ ऐसा वर्णन करते हैं।
227.
➡ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना।बोध जथारथ बेद पुराना।
दंभ मान मद करहिं न काउ।भूलि न देहिं कुमारग पाउ।
अर्थ : उन्हें वैराग्य बिबेक बिनय परमात्मा का ज्ञान वेद पुराण का ज्ञान रहता है। वे अहंकार घमंड अभिमान कभी नहीं करते और भूलकर भी कभी गलत रास्ते पर पैर नहीं रखते हैं।
228.
➡ जप तप ब्रत दम संजत नेमा।गुरू गोविंद विप्र पद प्रेमा।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया।मुदित मम पद प्रीति अमाया।
अर्थ : संत जप तपस्या ब्रत दम संयम और नियम में लीन रहते हैं। गुरू भगवान और ब्राह्मण के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा क्षमाशीलता मित्रता दया प्रसन्नता और ईश्वर के चरणों में विना छल कपट के प्रेम रहता है।
229.
➡ निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। परगुन सुनत अधिक हरखाहिं।
सम सीतल नहिं त्यागहि नीती।सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती।
अर्थ : संत अपनी प्रशंसा सुनकर संकोच करते हैं और दूसरों की प्रशंसा सुनकर खूब खुश होते हैं।वे सर्वदा शांत रहकर कभी भी न्याय का त्याग नहीं करते तथा उनका स्वभाव सरल तथा सबांे से प्रेम करने बाला होता है।
230.
➡ सट विकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा
अमित बोध अनीह मितभोगी।सत्यसार कवि कोविद जोगी।
अर्थ : संत काम क्रोध लोभ मोह अहंकार और मत्सर छः विकारो पर बिजय पाकर पापरहित इच्छारहित निश्चल सर्वस्व त्यागी पूर्णतः पवित्र सुखी ज्ञानी मिताहारीकामनारहित सत्यवादी कवि विद्वान और योगी हो जाते हैं।
231.
➡ अग्य अकोविद अंध अभागी।काई विशय मुकुर मन लागी।
लंपट कपटी कुटिल विसेशी।सपनेहुॅ संत सभा नहिं देखी।
अर्थ : अज्ञानी मूर्ख अंधा और अभागा लोगों के मन पर विशय रूपी काई जमी रहती है।लंपट ब्यभिचारी ठग और कुटिल लोगों को स्वप्न में भी संत समाज का दर्शन नहीं हो पाता है।
232.
➡ नयनन्हि संत दरस नहि देखा।लोचन मोरपंख कर लेखा।
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला।
अर्थ : जिसने अपने आॅखों से संतों का दर्शन नही किया उनके आॅख मोरपंख पर दिखाई देने वाली नकली आॅख के समान हैं। उनके सिर कडवे तुम्बी के सदृश्य हैं जो भगवान और गुरू के चरणों पर नही झुकते हैं।
233.
➡ धूम कुसंगति कारिख होई।लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।
सोई जल अनल अनिल संघाता।होई जलद जग जीवन दाता।
अर्थ : बुरे संगति में धुआॅ कालिख हो जाता है।अच्छे संगति में धुआॅ स्याही बन बेद पुराण लिखने में काम देता है।
वही धुआॅ पानी आग और हवा के संग बादल बनकर संसार को जीवन देने बाला बर्शा बन जाता है।
234.
➡ गगन चढई रज पवन प्रसंगा।कीचहिं मिलई नीच जल संगा।
साधु असाधु सदन सुक सारी।सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं।
अर्थ : हवा के साथ धूल आकाश पर चढता है।नीचे जल के साथ कीचर में मिल जाता है। साधु के घर सुग्गा राम राम बोलता है और नीच के घर गिन गिन कर गालियाॅ देता है।संगति से हीं गुण होता है।
235.
➡ कियहुॅ कुवेशु साधु सनमानु।जिमि जग जामवंत हनुमानू।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू।लोकहुॅ वेद विदित सब काहू।
अर्थ : बुरा भेश बनाने पर भी साधु का सम्मान हीं होता है।संसार में जामवंत और हनुमान जी का अत्यधिक सम्मान हुआ। बुरी संगति से हानि और अच्छी संगति से लाभ होता है इसे पूरा संसार जानता है।
236.
➡ लखि सुवेश जग वंचक जेउ।वेश प्रताप पूजिअहिं तेउ।
उघरहिं अंत न होई निवाहू।कालनेमि जिमि रावन राहूं।
अर्थ : कभी कभी ठग भी साधु का भेश बनाकर लोग उन्हें पूजने लगते हैं पर एक दिन उनका छल प्रकट हो जाता है जैसे कालनेमि रावण और राहु का हाल हुआ।
237.
➡ जड चेतन गुण दोशमय विस्व किन्ह अवतार
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार।
अर्थ : भगवान ने हीं जड चेतन संसार को गुण दोशमय बनाया है लेकिन संत रूप में हंस दूशित जल छोड कर दूध हीं स्वीकार करता है।
238.
➡ खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।उभय अपार उदधि अवगाहा।
तेहि तें कछु गुन देाश बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।
अर्थ : शैतान के अवगुण एवं साधु के गुण दोनों हीं अपरम्पार और अथाह समुद्र हैं। विना पहचान एवं ज्ञान के उनका त्याग या ग्रहण नही किया जा सकता है।
239.
➡ उपजहिं एक संग जग माही।जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं
सुधा सुरा सम साधु असाधूं।जनक एक जग जलधि अगाधू।
अर्थ : कमल और जोंक दोनों साथ हीं जल में पैदा होते हैं पर उनके गुण अलग हैं। अमृत और मदिरा दोनों समुद्र मंथन से एक साथ प्राप्त हुआ। इसी तरह साधू और दुश्ट दोनों जगत में साथ पैदा होते हैं परन्तु उनके स्वभाव अलग होते हैं।
240.
➡ संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बाल बिनय सुनि करि कृपा राम चरण रति देहु।
अर्थ : संत सरल हृदय का और सम्पूर्ण संसार का कल्याण चाहते हैं। अतः मेरी प्रार्थना है कि मेरे बाल हृदय में राम के चरणों में मुझे प्रेम दें।
241.
➡ बंदउ संत समान चित हित अनहित नहि कोई
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।
अर्थ : संत का चरित्र समतामूलक होता है।वह सबका हित ओर किसी का भी अहितनही देखता हैं। हाथों में रखा फूल जिस प्रकार सबों को सुगंधित करता है-उसीतरह संत भी शत्रु ओर मित्र दोनों की भलाई करते हैं।
242.
➡ बिधि हरि हर कवि कोविद वाणी।कहत साधु महिमा सकुचानी।
सो मो सनि कहि जात न कैसे।साक बनिक मनि गुन गन जैसे।
अर्थ : ब्रह्मा विश्णु शिव कवि ज्ञानी भी संत की महिमा कहने में संकोच करते हैं। साग सब्जी के ब्यापारी मणि के गुण को जिस तरह नही कह सकते-उसी तरह हम भी इनका वर्णन नही कर सकते।
243.
➡ सठ सुधरहिं सत संगति पाई।पारस परस कुघात सुहाई।
बिधि बश सुजन कुसंगत परहीं।फनि मनि सम निज गुन अनुसरहिं।
अर्थ : दुश्ट भी सतसंग से सुधर जाते हैं।पारस के छूने से लोहा भी स्वर्ण हो जाताहै। यदि कभी सज्जन ब्यक्ति कुसंगति में पर जाते हैं तब भी वे साॅप के मणि के समान अपना प्रकाश नहीं त्यागते और विश नही ग्रहण करते हैं।
244.
➡ बिनु सतसंग विवेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सत संगत मुद मंगल मूला।सोई फल सिधि सब साधन फूला ।
अर्थ : संत की संगति बिना विवेक नही होता।प्रभु कृपा के बिना संत की संगति सहज नही है। संत की संगति आनन्द और कल्याण का मूल है।इसका मिलना हीं फल है।अन्य सभी उपाय केवल फूलमात्र है।
245.
➡ मति कीरति गति भूति भलाई।जब जेहि जतन जहाॅ जेहि पाई।
सो जानव सतसंग प्रभाउ।लोकहुॅ बेद न आन उपाउ।
अर्थ : जिसने भी जहाॅ बुद्धि यश सदगति सुख सम्पदा प्राप्त किया है-वह संतों की संगति का प्रभाव जानें। सम्पूर्ण बेद और लोक में इनकी प्राप्ति का यही उपायबताया गया हैं।
246.
➡ मज्जन फल पेखिअ ततकाला।काक होहिं पिक वकउ मराला।
अर्थ : सुनि आचरज करै जनि कोई।सत संगति महिमा नहि गोई। संत रूपी तीर्थ में स्नान का फल तुरंत मिलता है।
कौआ कोयल और बगुला हंस बन जाते हैं। संतों की संगति का महात्म्य अकथ्य है।
247.
➡ सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।
अर्थ : जो ब्यक्ति प्रसन्नता से संतो के विशय में सुनते समझते हैं और उसपर मनन करते हैं-वे इसी शरीर एवं जन्म में धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों फल प्राप्त करते हैं।
248.
➡ मुद मंगलमय संत समाजू।जो जग जंगम तीरथ राजू।
राम भक्ति जहॅ सुरसरि धारा।सरसई ब्रह्म विचार प्रचारा।
अर्थ : संत समाज आनन्द और कल्याणप्रद है।वह चलता फिरता तीर्थराज है।वह ईश्वर भक्ति का प्रचारक है।
249.
➡ साधु चरित सुभ चरित कपासू।निरस विशद गुनमय फल जासू।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।वंदनीय जेहि जग जस पावा।
अर्थ : संत का चरित्र कपास की भांति उज्जवल है लेकिन उसका फल नीरस विस्तृत और गुणकारी होता है। संत स्वयं दुख सहकर अन्य के दोशों को ढकता है।इसी कारण संसार में उन्हें यश प्राप्त होता है।
250.
➡ सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करई सिर मानि
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।
अर्थ : गुरू और स्वामी की शिक्षा को जो स्वभावतः मन से नहीं मानता है उसे बाद में हृदय से पछताना पडता है और उसके हित का जरूर नुकसान होता है।
251.
➡ जे गुरू चरन रेनु सिर धरहिं।ते जनु सकल विभव बस करहीं।
अर्थ : जो ब्यक्ति गुरू के चरणों की धूल को मस्तक पर धारण करते हैं वे संसार के सभी ऐश्वर्य को अपने अधीन कर लेते हैं।
252.
➡ गुर के वचन प्रतीति न जेही।सपनेहुॅ सुगम न सुख सिधि तेही।
अर्थ : जिसे गुरू के वचनों में विश्वास भरोसा नही है उसे स्वप्न में भी सुख और सिद्धि नही प्राप्त हो सकती है।
253.
➡ होई न बिमल विवेक उर गुरू सन किएॅ दुराव।
अर्थ : गुरू से अपनी अज्ञानता छिपाने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नही हो सकता है।
254.
➡ लोक मान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।
अर्थ : लोगों के बीच मान सम्मान तपस्या रूपी जंगल को जलाकर भस्म कर देती है।
255.
➡ जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा।जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा।
तदपि बिरोध मान जहॅ कोई।तहाॅ गए कल्यान न होई।
अर्थ : बिना किसी शंका संकोच के मित्र प्रभु पिता और गुरू के घर बिना बुलाने पर भी जाना चाहिये पर जहाॅ कोई विरोध हो वहाॅ जाने में भलाई नही है।
256.
➡ तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाइ
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाॅ ले जाइ।
अर्थ : जैसी होनी भावी होती है वैसी हीं सहायता मिलती है। या तो वह सहायता अपने आप स्वयं आ जाती है या वह ब्यक्ति को वहाॅ ले जाती है।
257.
➡ जब जब होई धरम के हानी।बादहिं असुर अधम अभिमानी।
करहि अनीति जाई नही बरनी।सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।
अर्थ : तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा।हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा। जब भी संसार में धर्म का ह्ा्रस होता है और नीच घमंडी राक्षस बढ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनीति करने लगते हैं तथा ब्राहमण गाय देवता और पृथ्वी को सताने लगते हैं तब तब भगवान अनेक प्रकार के शरीर धारण करके उनका कश्ट दूर करने के लिये प्रकट होते हैं।
258.
➡ हरश विशाद ग्यान अज्ञाना।जीव धर्म अह मिति अभिमाना।
अर्थ : हर्श शोक ज्ञान अज्ञान अहंता और अभिमान ये सब सांसारिक जीव के सहज धर्म हैं।
259.
➡ संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुराण मुनि गाव
होई न विमल विवेक उर गुर सन किए दुराव।
अर्थ : सत कहते हैं कि नीति है एवं वेद पुराण तथा मुनि गाते हैं कि गुरू के साथ छिपाव दुराव करने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नही हो सकता।
260.
➡ गुरू पद रज मृदु मंजुल अंजन।नयन अमिअ दृग दोश विभंजन।
तेहि करि विमल विवेक बिलोचन।बरनउॅ राम चरित भव मोचन।
अर्थ : गुरू के पैरों की धूल कोमल और अंजन समान है जो आॅखों के दोशों कोदूर करता है। उस अंजन से प्राप्त विवेक से संसार के समस्त बंधन को दूर कर राम के चरित्र का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
261.
➡ श्री गुरू पद नख मनि गन जोती।सुमिरत दिब्य दृश्टि हियॅ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकाशू।बडे भाग्य उर आबई जासू।
अर्थ : गुरू के पैरों के नाखून से मणि का प्रकाश और स्मरण से हृदय में दिब्य दृश्टि उत्पन्न होता है।वह अज्ञान का नाश करता है।वह बहुत भाग्यवान है जिसके हृदय मेंयह ग्यान होता है।
262.
➡ बंदउ गुरू पद पदुम परागा।सुरूचि सुवास सरस अनुरागा।
अमिय मूरिमय चूरन चारू।समन सकल भव रूज परिवारू।
अर्थ : गुरू के पैरों की धूल सुन्दर स्वाद और सुगंध वाले अनुराग रस से पूर्ण है। वह संजीवनी औशध का चूर्ण है।यह संसार के समस्त रोगों का नाशक है।मै उस चरण धूल की वंदना करता हूॅ।
263.
➡ बंदउ गुरू पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि
महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर।
अर्थ : गुरू कृपा के सागर मानव रूप में भगवान है जिनके वचन माया मोह के घने अंधकार का विनाश करने हेतु सूर्य किरण के सदृश्य हैैैैैैैं ं। मै उसगुरू के कमल रूपी चरण की विनती करता हूॅ।
264.
➡ कमठ पीठ जामहिं बरू बारा।बंध्यासुत बरू काहुहिं मारा।
फूलहिं नभ बरू बहु बिधि फूला।जीवन लह सुख हरि प्रतिकूला।
अर्थ : कछुआ की पीठ पर बाल उग सकता है।बाॅझ का बेटा भले किसी को मार दे। आकाश में अनेक किस्म के फूल खिल जायें लेकिन प्रभु से विमुख जीव सुख नही पा सकता है।
265.
➡ ब्रम्ह पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।
अर्थ : बेद समुद्र ज्ञान मंदराचल पर्वत संत देवता हैं जो समुद्र को मथकर कथा रूप में अमृत निकालते हैं जिसमें भक्ति की मिठास बसी रहती है।
266.
➡ भगति करत बिनु जतन प्रयासा।संसृति मूल अविद्या नासा।
अर्थ : ईश्वर भक्ति संसार रूपी अविद्या को बिना प्रयास परिश्रम के नश्ट कर देता है।
267.
➡ ईश्वर अंस जीव अविनासी।चेतन अमल सहज सुखरासी।
अर्थ : जीव ईश्वर का हीं अंश है। अतएव वह चेतन अविनासी निर्मल एवं स्वभाव से हीं सुख से सम्पन्न है।
268.
➡ जे असि भगति जानि परिहरहीं।केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।
ते जड़ कामधेनु गृॅह त्यागी।खोजत आकु फिरहिं पय लागी।
अर्थ : जो भक्ति की महत्ता जानकर भी उसे नही अपनाते एवं निरा ज्ञान के लिये परिश्रम करते हैं वे मूर्ख घर के कामधेनु को छोड़ दूध के लिये आक के पेड़ को खोजते फिर रहे हैं।
269.
➡ सुनु खगेस हरि भगति बिहाईं।जे सुख चाहहिं आन उपाई।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी।पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।
अर्थ : जो लोग ईश्वर की भक्ति के बिना अन्य उपायों से सुख चाहते हैं वे मूर्ख और अभागे बिना जहाज के तैर कर महासागर के पार जाना चाहते हैं।
270.
➡ प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी।ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।
इहाॅ मोह कर कारन नाहीं।रवि सन्मुख तम कवहुॅ कि जाही।
अर्थ : प्रकृति से परे ईश्वर सबके हृदय में बसते हैं।वे इच्छारहित विकारों से विलग अविनासी ब्रह्म हैं। प्रभु किसी मोह के कारण नहीं हैं।अन्धकार समूह क्या कभी सूर्य के समक्ष जा सकता हैं।
271.
➡ अगुन अदभ्र गिरा गोतीता।सबदरसी अनबद्य अजीता।
निर्मम निराकार निरमोहा।नित्य निरंजन सुख संदोहा।
अर्थ : ईश्वर उस माया के लक्षणों से रहित महान शब्द और इन्द्रियों से अलग सब कुछ देखने बाला निर्दोस अविजित ममतारहित निराकार मोहरहित नित्य सर्वदा मायारहित सुख का भंडार है।
272.
➡ सोइ सर्वग्य तग्य सोइ पंडित।सोइ गुन गृह विज्ञान अखंडित।
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई।जाकें पद सरोज रति होई।
अर्थ : वह सर्वग्य तत्वज्ञ एवं पंडित है।वह गुणों का घर एवं अखंड ज्ञानी विद्वान है। वह चतुर और सभी अच्छे गुणों से युक्त है जिसे प्रभु के चरणों में प्रेम है।
273.
➡ प्रीति सदा सज्जन संसर्गा।तृन सम विशय स्वर्ग अपवर्गा।
भगति पच्छ हठ नहि सठताई।दुश्ट तर्क सब दूरि बहाई।
अर्थ : संतो की संगति से जिसे हमेशा पे्रम रहे जिसके मन मे विसय भोग स्वर्ग एवं मोक्ष सब घास के तिनके की तरह तुच्छ हो जो भक्ति के लिये हठी हो जो दूसरों के विचार का खण्डन करने की मूर्खता नही करता हो जिसने सभी कुतर्कों को दूर कर दिया हो-वही सच्चा भक्त है।
274.
➡ बैर न विग्रह आस न त्रासा।सुखमय ताहि सदा सब आसा।
अनारंभ अनिकेत अमानी।अनघ अरोस दच्छ विग्यानी।
अर्थ : किसी से भी शत्रुता लड़ाई झगड़ा न आशा न भय रखना हीं काफी है। उसके लिये सभी तरफ सुख हीं सुख है। कभी भी फल की आशा से कर्म न करे।घर से कोई विसेश मोह ममता न रखे। इज्जत पाने की चिन्ता न रखे।
पाप और क्रोध से दूर रहे-वही भक्ति में कुशल और ज्ञानी है।
275.
➡ कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई।जथा लाभ संतोश सदाई।
अर्थ : भक्ति के रास्ते में कोई परिश्रम नही है।इसके लिये न योग जप तपस्या या उपवास करने की जरूरत है। केवल स्वभाव की सरलता मन में कुटिलता का त्याग एवं जितना मिले उसी में संतोस करना हीं पर्याप्त है।
276.
➡ आस त्रास इरिसादि निवारक।विनय विवेक विरति विस्तारक।
अर्थ : ईश्वर सांसारिक भोगों की आशा भय ईश्र्या आदि के निवारण करने वाले तथा विनयशीलता विवेक बुद्धि और वैराग्य के बढ़ाने बाले हैं।
277.
➡ जे ब्रह्म अजम द्वैतमनु भवगम्य मन पर ध्यावहीं।
अर्थ : ब्रह्म अजन्मा एवं अद्वैत है।वह केवल अनुभव से जाना जाता है।वह मन से परे है।
278.
➡ जन रंजन भंजन सोक भयं ।गत क्रोध सदा प्रभु बोध मयं।
अवतार उदार अपार गुनं।महि भार विभंजन ग्यान घनं।
अर्थ : प्रभु अपने सेवकों को आनंन्दित करने बाले दुख और डर के नाशक हमेशा क्रोध रहित एवं नित्य ज्ञानस्वरूप हैं। ईश्वर अनन्त दिब्य गुणों बाला पृथ्वी का बोझ उतारने बाला और ज्ञान के अक्षय भंडार हैं।
279.
➡ तुम्ह समरूप ब्रहम अविनासी।सदा एकरस सहज उदासी।
अकल अगुन अज अनघ अनामय।अजित अमोघ सक्ति करूनामय।
अर्थ : ईश्वर समरूप ब्रहम अविनाशी नित्य एकरस शत्रुता मित्रता से उदासीन अखण्ड निर्गुण अजन्मा निश्पाप निर्विकार अजेय अमोघ शक्ति एवं दयामय है।
280.
➡ बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम
तिन्ह के हृदय कमल महुॅ करउॅ सदा विश्राम।
अर्थ : जिन्हें बचन मन और कर्म से सर्वदा ईश्वर में घ्यान रहता है तथा जो विना किसी इच्छा के उनका भजन करते हैं -ईश्वर सर्वदा उनके हृदय कमल के बीच विश्राम करते हैं।
281.
➡ मम गुन गावत पुलक सरीरा।गदगद गिरा नयन बह नीरा।
काम आदि मद दंभ न जाके।तात निरंतर बस में ताके।
अर्थ : ईश्वर का गुण गाते समय जिसका शरीर अत्यंत आनंन्दित हो जाये और जिसकी आॅखों से प्रेम के आॅसू बहने लगे तथा जिसमें काम घमंड गर्व आदि न हो-ईश्वर सर्वदा उसके अधीन रहते हैं।
282.
➡ भगति तात अनुपम सुख मूला।मिलइ जो संत होइॅ अनुकूला।
अर्थ : भक्ति अनुपम सुख की जड़ है।यह तभी प्राप्त होता है जब संत प्रसन्न होते हैं।
283.
➡ जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पाबई
अर्थ : ज्ञान गुण और इन्द्रियों से परे जप योग और समस्त धर्मों से मनुश्य अनुपम भक्ति पाता है।
284.
➡ प्रभु अपने नीचहु आदरहीं।अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।
अर्थ : ईश्वर अपने नीच लोगों का भी आदर करते हैं।आग धुआॅ और पहाड़ घास को अपने सिर पर धारण करता है।
285.
➡ कनकहिं बान चढई जिमि दाहें।तिमि प्रियतम पद नेम निबाहे।
अर्थ : जैसे सोने को आग में तपाने से उसकी चमक बढ जाती है उसी प्रकार प्रियतम के चरणों में प्रेम का निर्वाह करने पर प्रेमी सेवक की प्रतिश्ठा बढ जाती है।
286.
➡ सब के प्रिय सब के हितकारी।दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।
कहहिं सत्य प्रिय वचन विचारी।जागत सोवत सरन तुम्हारी।
अर्थ : जो सबों के प्रिय और हित करने बाले दुख सुख प्रसंशा और निन्दा सब में समान रहते हैं तथा जो सर्वदा विचार कर सत्य एवं प्रिय बोलने बाले एवं जो जागते सोते हमेशा ईश्वर की हीं शरण में रहते हैं।
287.
➡ काम कोह मद मान न मोहा।लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।
जिन्ह के कपट दंभ नहि माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।
अर्थ : जिनको काम वासना क्रोध घमंड अभिमान और मोह नहीं है और न हीं राग द्वेश छल कपट घमंड या माया लेशमात्र भी नही है भगवान उसी के हृदय में निवास करते हैं।
288.
➡ करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार
तब लगि सुखु सपनेहुॅ नहीं किएॅ कोटि उपचार।
अर्थ : कर्म वचन मन से छल छोड़कर जब तक ईश्वर का दास नहीं बना जाये तब तक करोड़ों उपाय करने पर भी स्वप्न में भी सुख नही मिल सकता है।
289.
➡ राम चरण पंकज प्रिय जिन्हहीं।विशय भोग बस करहिं कि तिन्हहीं।
अर्थ : जिन्हें श्रीराम के चरण कमल प्रिय हैं उन्हें विशय भोग कभी बस में नहीं कर सकते हैं।
290.
➡ नयन विशय मो कहुॅ भयउ सो समस्त सुख मूल
सबइ लाभु जग जीव कहॅ भएॅ ईसु अनुकूल।
अर्थ : प्रभु हमारी आॅखों के लिये सम्पूर्ण सुखों के मूल हैं तथा प्रभु के अनुकूल होने पर संसार में जीव को सब लाभ प्राप्त होता है।
291.
➡ मन समेत जेहि जान न वानी।तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।
महिमा निगमु नेति कहि कहई।जो तिहुॅ काल एकरस रहई।
अर्थ : जिन्हें पूरे मन से शब्दों द्वारा ब्यक्त नहीं किया जा सकता-जिनके बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता-जिनकी महिमा बेदों में नेति कहकर वर्णित है और जो हमेशा एकरस निर्विकार रहते हैं।
292.
➡ करहिं जोग जोगी जेहि लागी।कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी।चिदानंदु निरगुन गुनरासी।
अर्थ : योगी जिस प्रभु के लिये क्रोध मोह ममता और अहंकार को त्यागकर योग साधना करते हैं- वे सर्वव्यापक ब्रह्म अब्यक्त अविनासी चिदानंद निर्गुण और गुणों के खान हैं।
293.
➡ तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय
जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन।
अर्थ : प्रभु पूर्णकाम सज्जनों के शिरोमणि और प्रेम के प्यारे हैं। प्रभु भक्तों के गुणग्राहक बुराईयों का नाश करने बाले और दया के धाम हैं।
294.
➡ हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना।
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही। कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।
अर्थ : भगवान सब जगह हमेशा समान रूप से रहते हेै औेेर प्रेम से बुलाने पर प्रगट हो जाते हेंैं वे सभी देश विदेश एव दिशाओं में ब्याप्त हैं।कहा नही जा सकता कि प्रभु कहाॅ नही हैं।
295.
➡ तपबल तें जग सुजई बिधाता।तपबल बिश्णु भए परित्राता।
तपबल शंभु करहि संघारा।तप तें अगम न कछु संसारा।
अर्थ : तपस्या से कुछ भी प्राप्ति दुर्लभ नही है।इसमें शंका आश्र्चय करने की कोई जरूरत नही है। तपस्या की शक्ति से हीं ब्रह्मा ने संसार की रचना की है और तपस्या की शक्ति से ही बिश्णु इस संसार का पालन करते हैं।
तपस्या द्वारा हीं शिव संसार का संहार करते हैं। दुनिया में ऐसी कोई चीज नही जो तपस्या द्वारा प्राप्त नही किया जा सकता है।
296.
➡ प्रभु जानत सब बिनहि जनाएॅं।कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए।
अर्थ : प्रभु तो बिना बताये हीं सब जानते हैं। अतः संसार को प्रसन्न करने से कभी भी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती।
297.
➡ हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता।
रामचंन्द्र के चरित सुहाए।कलप कोटि लगि जाहि न गाए।
अर्थ : भगवान अनन्तहेैैैैेेे ंउनकी कथा भी अनन्त है। संत लोग उसे अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। श्रीराम के सुन्दर चरित्र करोडों युगों मे भी नही गाये जा सकते हैं।
298.
➡ सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा।गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा।
अगुन अरूप अलख अज जोई।भगत प्रेम बश सगुन सो होई।
अर्थ : सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है।मुनि पुराण पन्डित बेद सब ऐसा कहतेेेेे। जेा निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है।
299.
➡ कुलिस कठोर निठुर सोई छाती।सुनि हरि चरित न जो हरसाती।
अर्थ : उसका हृदय बज्र की तरह कठोर और निश्ठुर है जो ईश्वर का चरित्र सुनकर प्रसन्न हर्शित नही होता हैं।
300.
➡ जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी। जीवत सब समान तेइ प्राणी।
जो नहि करई राम गुण गाना।जीह सो दादुर जीह समाना।
अर्थ : जिसने भगवान की भक्ति को हृदय में नही लाया वह प्राणी जीवित मूर्दा के समान है।जिसने प्रभु के गुण नही गाया उसकी जीभ मेढक की जीभ के समान है।
301.
➡ जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना।श्रवण रंध्र अहि भवन समाना।
अर्थ : जिसने अपने कानों से प्रभु की कथा नही सुनी उसके कानों के छेद साॅप के बिल के समान हैं।
302.
➡ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें।जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने।
जेहि जाने जग जाई हेराई।जागें जथा सपन भ्रम जाई।
अर्थ : ईश्वर को नही जानने से झूठ सत्य प्रतीत होता है।बिना पहचाने रस्सी से साॅप का भ्रम होता है। लेकिन ईश्वर को जान लेने पर संसार का उसी प्रकार लोप हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम मिट जाता है।
303.
➡ सासति करि पुनि करहि पसाउ।नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
अर्थ : अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि वे पहले दण्ड देकर फिर दया करते हैं।
304.
➡ भगति निरुपन बिबिध बिधाना।क्षमा दया दम लता विताना।
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना।
अर्थ : अनेक तरह से भक्ति करना एवं क्षमा दया इन्द्रियों का नियंत्रण लताओं के मंडप समान हैं।मन का नियमन अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह शौच संतोश तप स्वाध्याय ईश्वर प्राणधन भक्ति के फूल और ज्ञान फल है।भगवान के चरणों में प्रेम भक्ति का रस है। बेदों ने इसका वर्णन किया है।
305.
➡ ब्यापक एकु ब्रह्म अविनाशी।सत चेतनघन आनन्द रासी।
अर्थ : ब्रह्म अनन्त एवं अविनाशी सत्य चैतन्य औरआनंन्द के भंडार का सत्ता है।
306.
➡ सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन
नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन।
अर्थ : जो सभी इच्छाओं को छोड कर राम भक्ति के रस मेंलीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते -वही सच्चा भक्त है।
307.
➡ जपहिं नामु जन आरत भारी।मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।
राम भगत जग चारि प्रकारा।सुकृति चारिउ अनघ उदारा।
अर्थ : संकट में पडे भक्त नाम जपते हैं तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। संसार में चार तरह के अर्थाथी;आर्त;जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते हैं।
308.
➡ सो केवल भगतन हित लागी।परम कृपाल प्रनत अनुरागी।
जेहि जन पर ममता अति छोहू।जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू।
अर्थ : प्रभु भक्तों के लिये हीं सब लीला करते हैं। वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं। भक्त पर उनकी ममता रहती है।वे केवल करूणा करते हैं। वे किसी पर क्रोध नही करते हैं।
309.
➡ एक अनीह अरूप अनामा।अज सच्चिदानन्द पर धामा।
ब्यापक विश्वरूप भगवाना।तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।
अर्थ : प्रभु एक हैं। उन्हें कोई इच्छा नही है। उनका कोई रूप या नाम नही है। वे अजन्मा औेर परमानंद परमधाम हैं।वे सर्वब्यापी विश्वरूप हैं। उन्होंने अनेक रूप शरीर धारण कर अनेक लीलायें की हैं।
310.
➡ मूक होई बाचाल पंगु चढई गिरिवर गहन
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।
अर्थ : ईश्वर कृपा से गूंगा अत्यधिक बोलने बाला और लंगडा भी उॅचे दुर्गम पहाड पर चढने लायक हो जाता है। ईश्वर कलियुग के समस्त पापों विकारों को नश्ट करने वाला परम दयावान है।
121.
➡ ममता रत सन ग्यान कहानी।अति लोभी सन विरति बखानी।
क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा।उसर बीज बएॅ फल जथा।
अर्थ : मोह माया में फॅसे ब्यक्ति से ज्ञान की कहानी अधिक लोभी से वैराग्य का वर्णन क्रोधी से शान्ति की बातें और कामुक से ईश्वर की बात कहने का वैसा हीं फल होता है जैसा उसर खेत में बीज बोने से होता है।
122.
➡ सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती।सहज कृपन सन सुंदर नीती।
अर्थ : मूर्खसे नम्रता दुश्ट से प्रेम कंजूस से उदारता के सुंदर नीति विचार ब्यर्थ होते हैं।
123.
➡ कादर मन कहुॅ एक अधारा।दैव दैव आलसी पुकारा।
अर्थ : ईश्वर का क्या भरोसा।देवता तो कायर मन का आधार है। आलसी लोग हीं भगवान भगवान पुकारा करते हैं।
124.
➡ साधु अवग्या तुरत भवानी।कर कल्यान अखिल कै हानी।
अर्थ : साधु संतों का अपमान तुरंत संपूर्ण भलाई का अंत नाश कर देता है।
125.
➡ उमा संत कइ इहइ बड़ाई।मंद करत जो करइ भलाई।
अर्थ : संत की यही महानता है कि वे बुराई करने बाले पर भी उसकी भलाई हीं करते हैं।
126.
➡ भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
अर्थ : सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये। किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।
127.
➡ हित मत तोहि न लागत कैसे।काल विबस कहुॅ भेसज जैसे।
अर्थ : भलाई की बातें उसी प्रकार अच्छी नहीं लगती है जैसे मृत्यु के अघीन रहने बाले ब्यक्ति को दवा अच्छी नहीं लगती है।
128.
➡ भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
अर्थ : सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये। किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।
129.
➡ कबहुॅ दिवस महॅ निविड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।
अर्थ : बादलों के कारण कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रगट हो जाते हैं।जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नश्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है।
130.
➡ नवनि नीच कै अति दुखदाई।जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
भयदायक खल कै प्रिय वानी ।जिमि अकाल के कुसुम भवानी।
अर्थ : नीच ब्यक्ति की नम्रता बहुत दुखदायी होती हैजैसे अंकुश धनुस साॅप और बिल्ली का झुकना।दुश्ट की मीठी बोली उसी तरह डरावनी होती है जैसे बिना ऋतु के फूल।
131.
➡ रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अर्थ : शत्रु रोग अग्नि पाप स्वामी एवं साॅप को कभी भी छोटा मानकर नहीं समझना चाहिये।
132.
➡ सेवक सुख चह मान भिखारी ।व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी।नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी।
अर्थ : सेवक सुख चाहता है भिखारी सम्मान चाहता है। व्यसनी धन और ब्यभिचारी अच्छी गति लोभी यश और अभिमानी चारों फल अर्थ काम धर्म और मोक्ष चाहते हैं तो यह असम्भव को सम्भव करना होगा।
133.
➡ मैं अरू मोर तोर तैं माया।जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया।
अर्थ : में और मेरा तू और तेरा-यही माया है जिाने सम्पूर्ण जीवों को बस में कर रखा है।
134.
➡ कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
अर्थ : कलियुग अनेक कठिन पापों का भंडार है जिसमें धर्म ज्ञान योग जप तपस्या आदि कुछ भी नहीं है।
135.
➡ धीरज धर्म मित्र अरू नारी।आपद काल परिखिअहिं चारी।
बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना।अंध बधिर क्रोधी अतिदीना।
अर्थ : धैर्य धर्म मित्र और स्त्री की परीक्षाआपद या दुख के समय होती हैै। बूढ़ा रोगी मूर्ख गरीब अन्धा बहरा क्रोधी और अत्यधिक गरीब सबों की परीक्षा इसी समय होती है।
136.
➡ सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
अर्थ : बिना कारण हीं दूसरों की भलाई करने बाले बुद्धिमान और श्रेश्ठ मालिक से बहुत कहना गल्ती होता है।
137.
➡ कसे कनकु मनि पारिखि पाएॅं। पुरूश परिखिअहिं समयॅ सुभाएॅ।
अर्थ : सोना कसौटी पर कसने और रत्न जौहरी के द्वारा हीं पहचाना जाता है। पुरूश की परीक्षा समय आने पर उसके स्वभाव चरित्र से होती है।
138.
➡ सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा ।बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा।
तो सृजि पालई हरइ बहोरी।बालकेलि सम बिधि मति भोरी।
अर्थ : ईश्वर की चाल अत्यंत विपरीत एवं विचित्र है। वह संसार की सृश्टि उत्पन्न करता और पालन और फिर संहार भी कर देता है। ईश्वर की बुद्धि बच्चों जैसी भोली विवेक रहित हैं।
139.
➡ सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल
जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।
अर्थ : अमृत मात्र सुनने की बात है कितुं जहर तो सब जगह प्रत्यक्षतः देखे जा सकते हैं। कौआ उल्लू और बगुला तो जहाॅ तहाॅ दिखते हैं परन्तु हॅस तो केवल मानसरोवर में हीं रहते हैं।
140.
➡ विशई साधक सिद्ध सयाने।त्रिविध जीव जग बेद बखाने।
अर्थ : संसारी साधक और ज्ञानी सिद्ध पुरूश-इस दुनिया में इसी तीन प्रकार के लोग बेदों ने बताये हैं।
141.
➡ अनुचित उचित काजु किछु होउ।समुझि करिअ भल कह सब कोउ।
सहसा करि पाछें पछिताहीं।कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।
अर्थ : किसी भी काम में उचित अनुचित विचार कर किया जाये तो सब लोग उसे अच्छा कहते हैं। बेद और विद्वान कहते हैं कि जो काम विना विचारे जल्दी में करके पछताते हैं-वे बुद्धिमान नहीं हैं।
142.
➡ लातहुॅ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।
अर्थ : धूल जैसा नीच भी पैर मारने पर सिर चढ़ जाता है।
143.
➡ रिपु रिन रंच न राखब काउ।
अर्थ : शत्रु और ऋण को कभी भी शेस नही रखना चाहिये। अल्प मात्रा में भी छोड़ना नही चाहिये।
144.
➡ जग बौराइ राज पद पाएॅ।
अर्थ : राजपद प्राप्त होने पर सारा संसार मदोन्नमत्त हो जाता है।
145.
➡ विशय जीव पाइ प्रभुताई।मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।
अर्थ : मूर्ख साॅसारिक जीव प्रभुता पा कर मोह में पड़कर अपने असली स्वभाव को प्रकट कर देते हैं।
146.
➡ सुनहुॅ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ।
अर्थ : मुनिनाथ ने अत्यंत दुख से भरत से कहा कि जीवन में लाभ नुकसान जिंदगी मौत प्रतिश्ठा या अपयश सभी ईश्वर के हाथों में है।
147.
➡ बिधिहुॅ न नारि हृदय गति जानी।सकल कपट अघ अवगुन खानी।
अर्थ : स्त्री के हृदय की चाल ईश्वर भी नहीं जान सकते हैं। वह छल कपट पाप और अवगुणों की खान है।
148.
➡ जोग वियोग भोग भल मंदा।हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।
जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू।संपति बिपति करमु अरू कालू।
अर्थ : मिलाप और बिछुड़न अच्छे बुरे भोग शत्रु मित्र और तटस्थ -ये सभी भ्रम के फाॅस हैं।जन्म मृत्यु संपत्ति विपत्ति कर्म और काल-ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं।
149.
➡ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।निज कृत करम भोग सबु भ्राता।
अर्थ : कोई भी किसी को दुख सुख नही दे सकता है सबों को अपने हीं कर्मों का फल भेागना पड़ता है।
150.
➡ सुभ अरू असुभ करम अनुहारी।ईसु देइ फल हृदय बिचारी।
करइ जो करम पाव फल सोई।निगम नीति असि कह सबु कोई।
अर्थ : ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है। ऐसा हीं वेद नीति और सब लोग कहते हैं।
151.
➡ जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते।पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।पति विहीन सबु सोक समाजू।
अर्थ : पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं। शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं।
152.
➡ काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ।
अर्थ : अग्नि किसे नही जला सकती है।समुद्र में क्या नही समा सकता है। अवला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है। संसार में काल किसे नही खा सकता है।
153.
➡ सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ।सब बिधि अगहु अगाध दुराउ।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई।जानि न जाइ नारि गति भाई।
अर्थ : स्त्री का स्वभाव समझ से परे अथाह और रहस्यपूर्ण होता है। कोई अपनी परछाई भले पकड ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है।
154.
➡ दुइ कि होइ एक समय भुआला।हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला।
दानि कहाउब अरू कृपनाई।होइ कि खेम कुसल रीताई।
अर्थ : ठहाका मारकर हॅसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एकहीं समय मेंसम्भव नहीं है। दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कथमपि सम्भव नही है।
155.
➡ कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।
अर्थ : किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नश्ट कर देती है।
156.
➡ सूल कुलिस असि अॅगवनिहारे।ते रतिनाथ सुमन सर मारे।
अर्थ : जो ब्यक्ति त्रिशूल बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुश्पवान से मारे जाते हैं।
157.
➡ अरि बस दैउ जियावत जाही।मरनु नीक तेहि जीवन चाहीै
अर्थ : ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।
158.
➡ रहा प्रथम अब ते दिन बीते।समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।
अर्थ : पहले बाली बात बीत चुकी है-समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।
159.
➡ तसि मति फिरी अहई जसि भावी।
अर्थ : जैसी भावी होनहार होती है-वैसी हीं बुद्धि भी फिर बदल जाती है।
160.
➡ कोउ नृप होउ हमहिं का हानि।चेरी छाडि अब होब की रानी।
अर्थ : कोई भी राजा हो जाये-हमारी क्या हानि है। दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउॅगा।
161.
➡ काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि
तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।
अर्थ : भरत की माॅ हॅसकर कहती हैं-कानों लंगरों और कुवरों को कुटिल और खराब चालचलन बाला जानना चाहिये।
162.
➡ सेवक सदन स्वामि आगमनु।मंगल मूल अमंगल दमनू।
अर्थ : सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और अमंगलों का नाश करने बाला होता है।
163.
➡ टेढ जानि सब बंदइ काहू।वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।
अर्थ : टेढा जानकर लोग किसी भी ब्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं। टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है।
164.
➡ जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी।नहि पावहिं परतिय मनु डीठी।
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं।ते नरवर थोरे जग माहीं।
अर्थ : ऐसे बीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृश्टि कभी नहीं जाता और भिखारी कभी जिनके यहाॅ से खाली हाथ नहीं लौटते ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं।
165.
➡ सुख संपति सुत सेन सहाई।जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।
नित नूतन सब बाढत जाई।जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।
अर्थ : सुख धन संपत्ति संतान सेना मददगार विजय प्रताप बुद्धि शक्ति और प्रशंसा -जैसे जैसे नित्य बढते हैं-वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता हैै।
166.
➡ सासति करि पुनि करहि पसाउ।नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
अर्थ : अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः बाद में सेवक पर कृपा करते हैं।
167.
➡ भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।
अर्थ : जब इ्र्रश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान पिता काल के समान और रस्सी साॅप के समान हो जाती है।
168.
➡ रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।
अर्थ : बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये। राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है।
169.
➡ जद्यपि जग दारून दुख नाना।सब तें कठिन जाति अवमाना।
अर्थ : इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है।
Tulsidas Dohe On Company - तुलसीदास के दोहे संगति पर
➡ पर संपदा बिनासि नसाहीं।जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।
दुश्ट उदय जग आरति हेतू।जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।
अर्थ : वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नश्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करके ओला भी नाश हो जाता है।दुश्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है।
171.
➡ सन इब खल पर बंधन करई ।खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।अहि मूशक इब सुनु उरगारी।
अर्थ : कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाॅधते हैं।जूट बाॅधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है। वह दुख सहकर मर जाता है।दुश्ट बिना स्वार्थ के साॅप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं।
172.
➡ उदासीन नित रहिअ गोसांई।खल परिहरिअ स्वान की नाई।
अर्थ : दुश्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये।दुश्ट को कुत्ते की तरह दूर से हीं त्याग देना चाहिये।
173.
➡ सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा।बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।
कवि कोविद गावहिं असि नीति।खल सन कलह न भल नहि प्रीती।
अर्थ : बुद्धिमान मनुश्य नीच की संगति नही करते हैं।कवि एवं पंडित नीति कहते हैं कि दुश्ट से न झगड़ा अच्छा है न हीं प्रेम।
174.
➡ रज मग परी निरादर रहई।सब कर पद प्रहार नित सहई।
मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई।पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।
अर्थ : धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सबों के पैर की चोट सहती रहती है। लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है। बाद में वह राजाओं के आॅखों और मुकुटों पर पड़ती है।
175.
➡ जेहि ते नीच बड़ाई पावा।सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा।
धूम अनल संभव सुनु भाई।तेहि बुझाव घन पदवी पाई।
अर्थ : नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश करता है।आग से पैदा धुआॅ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है।
176.
➡ भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।सत संगति संसृति कर अंता।
अर्थ : भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है।लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है। पुनः विना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नही मिलती है।संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है।
177.
➡ अवगुन सिधुं मंदमति कामी।वेद विदूसक परधन स्वामी।
विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा।दंभ कपट जिएॅ धरें सुवेसा।
अर्थ : वे दुर्गुणों के सागर मंदबुद्धि कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला जबर्दस्ती दूसरों का धन लूटने बाला द्रोही विसेसतः ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं। उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिवास बहुत सुन्दर रहता है।
178.
➡ मातु पिता गुर विप्र न मानहिं।आपु गए अरू घालहिं आनहि।
करहिं मोहवस द्रोह परावा।संत संग हरि कथा न भावा।
अर्थ : वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते।खुद तो नश्ट रहते हीं हैं दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं।मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है।
179.
➡ जब काहू कै देखहिं बिपती।सुखी भए मानहुॅ जग नृपति।
स्वारथ रत परिवार विरोधी।लंपट काम लोभ अति क्रोधी।
अर्थ : वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे हीं दुनिया के राजा हों। वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं।
180.
➡ लोभन ओढ़न लोभइ डासन।सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना।
काहू की जौं सुनहि बड़ाई।स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।
अर्थ : लोभ लालच हीं उनका ओढ़ना और विछावन होता है।वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं। उन्हें यमलोक का डर नहीं होता। किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है।
181.
➡ पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद
तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद।
अर्थ : वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं। वे पामर और पापयुक्त मनुश्य शरीर में राक्षस होते हैं।
182.
➡ झूठइ लेना झूठइदेना।झूठइ भोजन झूठ चवेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा।खाइ महा अति हृदय कठोरा।
अर्थ : दुश्ट का लेनादेना सब झूठा होता है।उसका नाश्ता भोजन सब झूठ हीं होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विशधर साॅप को भी खा जाता है। इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं।
183.
➡ काम क्रोध मद लोभ परायन।निर्दय कपटी कुटिल मलायन।
वयरू अकारन सब काहू सों।जो कर हित अनहित ताहू सों।
अर्थ : वे काम क्रोध अहंकार लोभ के अधीन होते हैं।वे निर्दय छली कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं। वे बिना कारण सबसे दुशमनी रखते हैं।जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई हीं करते हैं।
184.
➡ खलन्ह हृदयॅ अति ताप विसेसी ।जरहिं सदा पर संपत देखी।
जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई।हरसहिं मनहुॅ परी निधि पाई।
अर्थ : दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है। वे दुसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं। दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैंजैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो।
185.
➡ सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ।भ्ूालेहुॅ संगति करिअ न काउ।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।
अर्थ : अब असंतों का गुण सुनें।कभी भूलवश भी उनका साथ न करें। उनकी संगति हमेशा कश्टकारक होता है।
खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है।
186.
➡ तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
अर्थ : यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता।
187.
➡ को न कुसंगति पाइ नसाई।रहइ न नीच मतें चतुराई।
अर्थ : खराब संगति से सभी नश्ट हो जाते हैं। नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई बुद्धि भ्रश्ट हो जाती हैं ।
188.
➡ ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग।
अर्थ : ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र -ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं। ज्ञानी और समझदार लोग हीं इसे जान पाते हैं।
189.
➡ बैनतेय बलि जिमि चह कागू।जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू।
जिमि चह कुसल अकारन कोही।सब संपदा चहै शिव द्रोही।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई।अकलंकता कि कामी लहई।
अर्थ : यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे-अकारण क्रोध करने बाला अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने बाला सब तरह की संपत्ति चाहे-लोभी अच्छी कीर्ति और कामी पुरूश बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छायें ब्यर्थ हैं।
190.
➡ बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं।गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।
जलधि अगाध मौलि बह फेन।संतत धरनि धरत सिर रेनू।
अर्थ : बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं।पहाड के सिर में हमेशा घास रहता है। अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है।
191.
➡ तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
अर्थ : सुंदर वेशभूशा देखकर मूर्ख हीं नही चतुर लोग भी धोखा में पर जाते हैं। मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन साॅप का खाता है।
192.
➡ सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई।सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं।रवि पावक सुरसरि की नाई।
अर्थ : गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता। सूर्य आग और गंगा की तरह समर्थ ब्यक्ति को कोई दोश नही लगाता है।
193.
➡ कठिन कुसंग कुपंथ कराला।तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला।
गृह कारज नाना जंजाला।ते अति दुर्गम सैल विसाला।
अर्थ : खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है।उन कुसंगियों के बोल बाघ सिह और साॅप की भाॅति हैं।घर के कामकाज में अनेक झंझट हीं बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं।
Tulsidas Dohe On Ego - तुलसीदास के दोहे अहंकार पर
➡ लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल।
अर्थ : क्रोध सभी पापों की जड है। क्रोध में मनुश्य सभी अनुचित काम कर लेते हैं और संसार में सबका अहित हीं करते हैं।
195.
➡ सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू
विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु।
अर्थ : बीर युद्ध में बीरता का कार्य करते हैं।कहकर नहीं जनाते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर हीं अपने प्रताप की डींग हाॅकते हैं।
196.
➡ तेहिं ते कहहिं संत श्रुति टेरें।परम अकिंचन प्रिय हरि केरें।
अर्थ : संत और वेद पुकार कर कहते हैं कि अत्यधिक घमंड रहित माया मोह और मान प्रतिश्ठा को त्याग देने बाले हीं ईश्वर को प्रिय होते हैं।
197.
➡ बड अधिकार दच्छ जब पावा।अति अभिमानु हृदय तब आबा।
नहि कोउ अस जनमा जग माहीं।प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं।
अर्थ : जब दक्ष को प्रजापति का अधिकार मिला तो उसके मन में अत्यधिक घमंड आ गया। संसार में ऐसा किसी ने जन्म नही लिया जिसे अधिकार पाकर घमंड नही हुआ हो।
198.
➡ बन बहु विशम मोह मद माना।नदी कुतर्क भयंकर नाना।
अर्थ : मोह घमंड और प्रतिश्ठा बीहर जंगल और कुतर्क भयावह नदि हैं।
Tulsidas Dohe On Remembrance - तुलसीदास के दोहे सुमिरण पर
➡ ता कहुॅ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल
तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।
अर्थ : जिसपर भगवान खुश हों उसके लिये कुछ भी कठिन नहीं है। ईश्वर के प्रभाव से रूई भी बड़वानल को जला सकमी है। असम्भव भी सम्भव हो जाता है।
200.
➡ पर हित लागि तजई जो देही।संतत संत प्रसंसहि तेहीं
अर्थ : दूसरो की भलाई के लिये जो अपना शरीर तक त्याग देता है-संत लोग सदा हीं उसकी प्रशंशा करते हैं।
201.
➡ मातु पिता गुर प्रभु के वाणी।विनहिं विचार करिअ सुभ जानी।
अर्थ : माता पिता गुरू और स्वामी की बातों को बिना सोच विचार कर कल्याणकारी जानकर मानना चाहिये।
202.
➡ कह मुनीस हिमवंत सुनु जो विधि लिखा लिलार
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनहार।
अर्थ : ईश्वर ने जो कपाल भाग्य में लिख दिया है उसे देवता राक्षस आदमी या नाग कोई भी नही मिटा सकता है।
203.
➡ का बरसा सब कृसी सुखाने।समय चुकें पुनि का पछताने।
अर्थ : सारा कृसी सूख जाने पर वर्शा का क्या लाभ?समय बीत जाने पर पुनः पछताने से क्या लाभ होगा।
204.
➡ तृशित बारि बिनु जो तनु त्यागा।मुएॅ करइ का सुधा तरागा।
अर्थ : प्यासा आदमी पानी के विना शरीर छोड दे तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?
205.
➡ जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू।सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।
अर्थ : जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह उसे मिलता हीं हैं-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
206.
➡ जिन्ह के रही भावना जैसी।प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।
अर्थ : जिनकी जैसी भावना होती है वे प्रभु की मूर्ति वैसी हीं देखते हैं।
207.
➡ ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुण नाम न रूप
भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप।
अर्थ : प्रभु ब्यापक अशरीर इच्छारहित अजन्मा निर्गुण तथा विना नाम एवं रूप बाले हैं और भक्तों के लिये अनेकों प्रकार की अनुपम लीलायें करते हैं।
208.
➡ बिप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।
अर्थ : ब्राम्हण गाय देवता और संतों के हित हेतु भगवान ने आदमी के रूप में अवतार लिया है। वे समस्त माया और इन्द्रियों से परे हैं। उनका शरीर उन्हीं की इच्छा से बना है।
209.
➡ अग जगमय सब रहित विरागी।प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।
अर्थ : प्रभु सम्पूर्ण जगत में समस्त राग विराग से रहित होकर ब्याप्त हैं पर उसकी प्राप्ति के लिये साधन करना पड़ता है। ईश्वर प्राप्ति का साधन प्रेम है।
210.
➡ धरनि धरहिं मन धीर कह विरंचि हरि पद सुमिरू
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारून विपति।
अर्थ : पृथ्वी पर धीरज रखकर भगवान के चरण का स्मरण करो। प्रभु सभी लोगों की पीडा को जानते हैं और महान कश्ट एवं विपत्ति का नाश करते हैं।
211.
➡ बातुल भूत बिवस मतवारे।ते नहि बोलहिं बचन विचारे।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।
अर्थ : जो पागल उन्मादी और भूत के वशीभूत मतवाले हैंऔर नशे में चूर हैं वे कभी भी सोच विचार कर नही बोलते हैं। जिसने मोह माया की मदिरा पी ली है उनके कहने पर कभी कान ध्यान नही देना चाहिये।
212.
➡ प्रभु समरथ सर्वग्य सिव सकल कला गुण धाम
जोग ग्यान वैराग्य निधि प्रनत कलपतरू नाम।
अर्थ : ईश्वर सर्व सामथ्र्यवान सर्वग्य और कल्याणदायी हैं।वे सभी कलाओं और गुणों के निधान हैं।वे योग ज्ञान और वैराग्य के भंडार हैं।प्रभु का नाम शरणागतों के लिये कल्पतरू है।
213.
➡ सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।बिनु श्रम प्रवल मोह दलु जीती।
फिरत सनेहॅ मगन सुख अपने।नाम प्रसाद सोच नहि सपने।
अर्थ : भक्त प्रेमपूर्वक नाम के सुमिरण से बिना परिश्रम मोह माया की प्रवल सेना को जीत लेता है और प्रभु प्रेम में मग्न हो कर सुखी रहता है।नाम के फल से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नही होती।
Tulsidas Dohe On Saints - तुलसीदास के दोहे संतजन पर
➡ संत हृदय नवनीत समाना।कहा कविन्ह परि कहै न जाना।
निज परिताप द्रवई नवनीता।पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।
अर्थ : संत का दिल मक्खन के जैसा होता है।लेकिन कवियों ने ठीक नहीं कहा है। मक्खन तो ताप से स्वयं को पिघलाता है किंतु संत तो दूसरों के दुख से पिघल जाते हैं।
215.
➡ संत बिटप सरिता गिरि धरनी।पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।
अर्थ : संत बृक्ष नदी पहाड़ एवं धरती-इन तमाम की क्रियायें दूसरों की भलाई के लिये होती है।
216.
➡ संत उदय संतत सुखकारी।बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।
परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा।
अर्थ : संतों का आना सर्वदा सुख देने बाला होता है जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय संसार को सुख देता है।
बेदों मे अहिंसा को परम धर्म माना गया है और दूसरों की निंदा के जैसा कोई भारी पाप नहीं है।
217.
➡ संत सहहिं दुख पर हित लागी।पर दुख हेतु असंत अभागी।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।पर हित निति सह विपति विसाला।
अर्थ : संत दूसरों की भलाई के लिये दुख सहते हैं एवं अभागे असंत दूसरों को दुखदेने के लिये होते हैं। संत भोज बृक्ष के समान कृपालु एवं दूसरों की भलाई के लिये अनेक कश्ट सहने के लिये भी तैयार रहते हैं।
218.
➡ निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज।
अर्थ : जिनके लिये निंदा और बड़ाई समान हो और जो ईश्वर के चरणों में ममत्व रखता हो वे अनेक गुणों के भंडार और सुख की राशि प्रभु को प्राणों के समान प्रिय हैं।
219.
➡ ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।जानेहुॅ तात संत संतत फुर।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।परूस बचन कबहूॅ नहि बोलहिं।
अर्थ : जो ब्यक्ति अपने मन बचन और कर्म इन्द्रियों का नियंत्रण रखता हो जो नियम और सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं हो और मुॅह से कभी कठोर वचन नहीं बोलता हो-इन सब लक्षणों बालेां को सच्चा संत मानना चाहिये।
220.
➡ बिगत काम मम नाम परायण।सांति विरति विनती मुदितायन।
सीतलता सरलता मयत्री।द्विज पद प्रीति धर्म जनपत्री।
अर्थ : उन्हें कोई इच्छा नहीं रहती।वे केवल प्रभु के नाम का मनन करते हैं। वे शान्ति वैराग्य विनयशीलता और प्रसन्नता के भंडार होते हैं। उनमें शीतलता सरलता सबके लिये मित्रता ब्राह्मनों के चरणों में प्रेम और धर्मभाव रहता है।
221.
➡ कोमल चित दीनन्ह पर दाया।मन बच क्रम मम भगति अमाया।
सबहिं मानप्रद आपु अमानी।भरत प्रान सम मम ते प्रानी।
अर्थ : संत का हृदय कोमल एवं गरीबों पर दयावान होता है एवं मन वचन और कर्म से वे ईश्वर में निश्कपट भक्ति रखते हैं। वे सबकी इज्जत करते हैं पर स्वयं इज्जत से इच्छारहित होते हैं। वे प्रभु को प्राणों से भी प्रिय होते हैं।
222.
➡ विशय अलंपट सील गुनाकर।पर दुख दुख सुख सुख पर।
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी।लोभा मरस हरस भय त्यागी।
अर्थ : संत सांसारिक चीजों मे लिप्त नहीं होकर शील और सदगुणों के खान होते हैं। उन्हें दुसरों के दुख देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। वे हमेशासमत्व भाव में रहते हैं।उनके मन में किसी के लिये शत्रुता नहीं रहती है। वे हमेशा घमंड रहित वैराग्य में लीन एवं लोभ क्रोध खुशी एवं डर से विलग रहते हैं।
223.
➡ ताते सुर सीसन्ह चट़त जग वल्लभ श्रीखंड
अनल दाहि पीटत घनहि परसु बदन यह दंड।
अर्थ : इसी कारण चन्दन संसार में प्रभु के मस्तक पर चट़ता है और संसार की प्रिय वस्तु है लेकिन कुल्हाड़ी को यह सजा मिलती है कि पहले उसे आग में जलाया जाता है एवं बाद में उसे भारी घन से पीटा जाता है।
224.
➡ संत असंतन्हि कै अस करनी।जिमि कुठार चंदन आचरनी।
काटइ परसु मलय सुनु भाई।निज गुण देइ सुगंध बसाई।
अर्थ : संत और असंतों के क्रियाकलाप ऐसे हैं जैसे कुल्हाड़ी और चंदन के आचरण होते हैं।कुल्हाड़ी चन्दन को काटता है लेकिन चन्दन उसे अपना गुण देकर सुगंध से सुगंधित कर देता है।
225.
➡ संतत के लच्छन सुनु भ्राता।अगनित श्रुति पुरान विख्याता।
अर्थ : हे भाई-संतों के गुण अनगिनत हैं जो बेदों और पुाणों में प्रसिद्य हैं।
226.
➡ संत संग अपवर्ग कर कामी भव कर पंथ
कहहिं संत कवि कोविद श्रुति पुरान सदग्रंथ।
अर्थ : संत की संगति मोक्ष और कामी ब्यक्ति का संग जन्म मृत्यु के बंधन में डालने बाला रास्ता है। संत कवि पंण्डित एवं बेद पुराण सभी ग्रंथ ऐसा वर्णन करते हैं।
227.
➡ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना।बोध जथारथ बेद पुराना।
दंभ मान मद करहिं न काउ।भूलि न देहिं कुमारग पाउ।
अर्थ : उन्हें वैराग्य बिबेक बिनय परमात्मा का ज्ञान वेद पुराण का ज्ञान रहता है। वे अहंकार घमंड अभिमान कभी नहीं करते और भूलकर भी कभी गलत रास्ते पर पैर नहीं रखते हैं।
228.
➡ जप तप ब्रत दम संजत नेमा।गुरू गोविंद विप्र पद प्रेमा।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया।मुदित मम पद प्रीति अमाया।
अर्थ : संत जप तपस्या ब्रत दम संयम और नियम में लीन रहते हैं। गुरू भगवान और ब्राह्मण के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा क्षमाशीलता मित्रता दया प्रसन्नता और ईश्वर के चरणों में विना छल कपट के प्रेम रहता है।
229.
➡ निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। परगुन सुनत अधिक हरखाहिं।
सम सीतल नहिं त्यागहि नीती।सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती।
अर्थ : संत अपनी प्रशंसा सुनकर संकोच करते हैं और दूसरों की प्रशंसा सुनकर खूब खुश होते हैं।वे सर्वदा शांत रहकर कभी भी न्याय का त्याग नहीं करते तथा उनका स्वभाव सरल तथा सबांे से प्रेम करने बाला होता है।
230.
➡ सट विकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा
अमित बोध अनीह मितभोगी।सत्यसार कवि कोविद जोगी।
अर्थ : संत काम क्रोध लोभ मोह अहंकार और मत्सर छः विकारो पर बिजय पाकर पापरहित इच्छारहित निश्चल सर्वस्व त्यागी पूर्णतः पवित्र सुखी ज्ञानी मिताहारीकामनारहित सत्यवादी कवि विद्वान और योगी हो जाते हैं।
231.
➡ अग्य अकोविद अंध अभागी।काई विशय मुकुर मन लागी।
लंपट कपटी कुटिल विसेशी।सपनेहुॅ संत सभा नहिं देखी।
अर्थ : अज्ञानी मूर्ख अंधा और अभागा लोगों के मन पर विशय रूपी काई जमी रहती है।लंपट ब्यभिचारी ठग और कुटिल लोगों को स्वप्न में भी संत समाज का दर्शन नहीं हो पाता है।
232.
➡ नयनन्हि संत दरस नहि देखा।लोचन मोरपंख कर लेखा।
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला।
अर्थ : जिसने अपने आॅखों से संतों का दर्शन नही किया उनके आॅख मोरपंख पर दिखाई देने वाली नकली आॅख के समान हैं। उनके सिर कडवे तुम्बी के सदृश्य हैं जो भगवान और गुरू के चरणों पर नही झुकते हैं।
233.
➡ धूम कुसंगति कारिख होई।लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।
सोई जल अनल अनिल संघाता।होई जलद जग जीवन दाता।
अर्थ : बुरे संगति में धुआॅ कालिख हो जाता है।अच्छे संगति में धुआॅ स्याही बन बेद पुराण लिखने में काम देता है।
वही धुआॅ पानी आग और हवा के संग बादल बनकर संसार को जीवन देने बाला बर्शा बन जाता है।
234.
➡ गगन चढई रज पवन प्रसंगा।कीचहिं मिलई नीच जल संगा।
साधु असाधु सदन सुक सारी।सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं।
अर्थ : हवा के साथ धूल आकाश पर चढता है।नीचे जल के साथ कीचर में मिल जाता है। साधु के घर सुग्गा राम राम बोलता है और नीच के घर गिन गिन कर गालियाॅ देता है।संगति से हीं गुण होता है।
235.
➡ कियहुॅ कुवेशु साधु सनमानु।जिमि जग जामवंत हनुमानू।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू।लोकहुॅ वेद विदित सब काहू।
अर्थ : बुरा भेश बनाने पर भी साधु का सम्मान हीं होता है।संसार में जामवंत और हनुमान जी का अत्यधिक सम्मान हुआ। बुरी संगति से हानि और अच्छी संगति से लाभ होता है इसे पूरा संसार जानता है।
236.
➡ लखि सुवेश जग वंचक जेउ।वेश प्रताप पूजिअहिं तेउ।
उघरहिं अंत न होई निवाहू।कालनेमि जिमि रावन राहूं।
अर्थ : कभी कभी ठग भी साधु का भेश बनाकर लोग उन्हें पूजने लगते हैं पर एक दिन उनका छल प्रकट हो जाता है जैसे कालनेमि रावण और राहु का हाल हुआ।
237.
➡ जड चेतन गुण दोशमय विस्व किन्ह अवतार
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार।
अर्थ : भगवान ने हीं जड चेतन संसार को गुण दोशमय बनाया है लेकिन संत रूप में हंस दूशित जल छोड कर दूध हीं स्वीकार करता है।
238.
➡ खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।उभय अपार उदधि अवगाहा।
तेहि तें कछु गुन देाश बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।
अर्थ : शैतान के अवगुण एवं साधु के गुण दोनों हीं अपरम्पार और अथाह समुद्र हैं। विना पहचान एवं ज्ञान के उनका त्याग या ग्रहण नही किया जा सकता है।
239.
➡ उपजहिं एक संग जग माही।जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं
सुधा सुरा सम साधु असाधूं।जनक एक जग जलधि अगाधू।
अर्थ : कमल और जोंक दोनों साथ हीं जल में पैदा होते हैं पर उनके गुण अलग हैं। अमृत और मदिरा दोनों समुद्र मंथन से एक साथ प्राप्त हुआ। इसी तरह साधू और दुश्ट दोनों जगत में साथ पैदा होते हैं परन्तु उनके स्वभाव अलग होते हैं।
240.
➡ संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बाल बिनय सुनि करि कृपा राम चरण रति देहु।
अर्थ : संत सरल हृदय का और सम्पूर्ण संसार का कल्याण चाहते हैं। अतः मेरी प्रार्थना है कि मेरे बाल हृदय में राम के चरणों में मुझे प्रेम दें।
241.
➡ बंदउ संत समान चित हित अनहित नहि कोई
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।
अर्थ : संत का चरित्र समतामूलक होता है।वह सबका हित ओर किसी का भी अहितनही देखता हैं। हाथों में रखा फूल जिस प्रकार सबों को सुगंधित करता है-उसीतरह संत भी शत्रु ओर मित्र दोनों की भलाई करते हैं।
242.
➡ बिधि हरि हर कवि कोविद वाणी।कहत साधु महिमा सकुचानी।
सो मो सनि कहि जात न कैसे।साक बनिक मनि गुन गन जैसे।
अर्थ : ब्रह्मा विश्णु शिव कवि ज्ञानी भी संत की महिमा कहने में संकोच करते हैं। साग सब्जी के ब्यापारी मणि के गुण को जिस तरह नही कह सकते-उसी तरह हम भी इनका वर्णन नही कर सकते।
243.
➡ सठ सुधरहिं सत संगति पाई।पारस परस कुघात सुहाई।
बिधि बश सुजन कुसंगत परहीं।फनि मनि सम निज गुन अनुसरहिं।
अर्थ : दुश्ट भी सतसंग से सुधर जाते हैं।पारस के छूने से लोहा भी स्वर्ण हो जाताहै। यदि कभी सज्जन ब्यक्ति कुसंगति में पर जाते हैं तब भी वे साॅप के मणि के समान अपना प्रकाश नहीं त्यागते और विश नही ग्रहण करते हैं।
244.
➡ बिनु सतसंग विवेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सत संगत मुद मंगल मूला।सोई फल सिधि सब साधन फूला ।
अर्थ : संत की संगति बिना विवेक नही होता।प्रभु कृपा के बिना संत की संगति सहज नही है। संत की संगति आनन्द और कल्याण का मूल है।इसका मिलना हीं फल है।अन्य सभी उपाय केवल फूलमात्र है।
245.
➡ मति कीरति गति भूति भलाई।जब जेहि जतन जहाॅ जेहि पाई।
सो जानव सतसंग प्रभाउ।लोकहुॅ बेद न आन उपाउ।
अर्थ : जिसने भी जहाॅ बुद्धि यश सदगति सुख सम्पदा प्राप्त किया है-वह संतों की संगति का प्रभाव जानें। सम्पूर्ण बेद और लोक में इनकी प्राप्ति का यही उपायबताया गया हैं।
246.
➡ मज्जन फल पेखिअ ततकाला।काक होहिं पिक वकउ मराला।
अर्थ : सुनि आचरज करै जनि कोई।सत संगति महिमा नहि गोई। संत रूपी तीर्थ में स्नान का फल तुरंत मिलता है।
कौआ कोयल और बगुला हंस बन जाते हैं। संतों की संगति का महात्म्य अकथ्य है।
247.
➡ सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।
अर्थ : जो ब्यक्ति प्रसन्नता से संतो के विशय में सुनते समझते हैं और उसपर मनन करते हैं-वे इसी शरीर एवं जन्म में धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों फल प्राप्त करते हैं।
248.
➡ मुद मंगलमय संत समाजू।जो जग जंगम तीरथ राजू।
राम भक्ति जहॅ सुरसरि धारा।सरसई ब्रह्म विचार प्रचारा।
अर्थ : संत समाज आनन्द और कल्याणप्रद है।वह चलता फिरता तीर्थराज है।वह ईश्वर भक्ति का प्रचारक है।
249.
➡ साधु चरित सुभ चरित कपासू।निरस विशद गुनमय फल जासू।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।वंदनीय जेहि जग जस पावा।
अर्थ : संत का चरित्र कपास की भांति उज्जवल है लेकिन उसका फल नीरस विस्तृत और गुणकारी होता है। संत स्वयं दुख सहकर अन्य के दोशों को ढकता है।इसी कारण संसार में उन्हें यश प्राप्त होता है।
Tulsidas Dohe On Teacher - तुलसीदास के दोहे गुरू पर
➡ सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करई सिर मानि
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।
अर्थ : गुरू और स्वामी की शिक्षा को जो स्वभावतः मन से नहीं मानता है उसे बाद में हृदय से पछताना पडता है और उसके हित का जरूर नुकसान होता है।
251.
➡ जे गुरू चरन रेनु सिर धरहिं।ते जनु सकल विभव बस करहीं।
अर्थ : जो ब्यक्ति गुरू के चरणों की धूल को मस्तक पर धारण करते हैं वे संसार के सभी ऐश्वर्य को अपने अधीन कर लेते हैं।
252.
➡ गुर के वचन प्रतीति न जेही।सपनेहुॅ सुगम न सुख सिधि तेही।
अर्थ : जिसे गुरू के वचनों में विश्वास भरोसा नही है उसे स्वप्न में भी सुख और सिद्धि नही प्राप्त हो सकती है।
253.
➡ होई न बिमल विवेक उर गुरू सन किएॅ दुराव।
अर्थ : गुरू से अपनी अज्ञानता छिपाने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नही हो सकता है।
254.
➡ लोक मान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।
अर्थ : लोगों के बीच मान सम्मान तपस्या रूपी जंगल को जलाकर भस्म कर देती है।
255.
➡ जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा।जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा।
तदपि बिरोध मान जहॅ कोई।तहाॅ गए कल्यान न होई।
अर्थ : बिना किसी शंका संकोच के मित्र प्रभु पिता और गुरू के घर बिना बुलाने पर भी जाना चाहिये पर जहाॅ कोई विरोध हो वहाॅ जाने में भलाई नही है।
256.
➡ तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाइ
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाॅ ले जाइ।
अर्थ : जैसी होनी भावी होती है वैसी हीं सहायता मिलती है। या तो वह सहायता अपने आप स्वयं आ जाती है या वह ब्यक्ति को वहाॅ ले जाती है।
257.
➡ जब जब होई धरम के हानी।बादहिं असुर अधम अभिमानी।
करहि अनीति जाई नही बरनी।सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।
अर्थ : तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा।हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा। जब भी संसार में धर्म का ह्ा्रस होता है और नीच घमंडी राक्षस बढ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनीति करने लगते हैं तथा ब्राहमण गाय देवता और पृथ्वी को सताने लगते हैं तब तब भगवान अनेक प्रकार के शरीर धारण करके उनका कश्ट दूर करने के लिये प्रकट होते हैं।
258.
➡ हरश विशाद ग्यान अज्ञाना।जीव धर्म अह मिति अभिमाना।
अर्थ : हर्श शोक ज्ञान अज्ञान अहंता और अभिमान ये सब सांसारिक जीव के सहज धर्म हैं।
259.
➡ संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुराण मुनि गाव
होई न विमल विवेक उर गुर सन किए दुराव।
अर्थ : सत कहते हैं कि नीति है एवं वेद पुराण तथा मुनि गाते हैं कि गुरू के साथ छिपाव दुराव करने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नही हो सकता।
260.
➡ गुरू पद रज मृदु मंजुल अंजन।नयन अमिअ दृग दोश विभंजन।
तेहि करि विमल विवेक बिलोचन।बरनउॅ राम चरित भव मोचन।
अर्थ : गुरू के पैरों की धूल कोमल और अंजन समान है जो आॅखों के दोशों कोदूर करता है। उस अंजन से प्राप्त विवेक से संसार के समस्त बंधन को दूर कर राम के चरित्र का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
261.
➡ श्री गुरू पद नख मनि गन जोती।सुमिरत दिब्य दृश्टि हियॅ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकाशू।बडे भाग्य उर आबई जासू।
अर्थ : गुरू के पैरों के नाखून से मणि का प्रकाश और स्मरण से हृदय में दिब्य दृश्टि उत्पन्न होता है।वह अज्ञान का नाश करता है।वह बहुत भाग्यवान है जिसके हृदय मेंयह ग्यान होता है।
262.
➡ बंदउ गुरू पद पदुम परागा।सुरूचि सुवास सरस अनुरागा।
अमिय मूरिमय चूरन चारू।समन सकल भव रूज परिवारू।
अर्थ : गुरू के पैरों की धूल सुन्दर स्वाद और सुगंध वाले अनुराग रस से पूर्ण है। वह संजीवनी औशध का चूर्ण है।यह संसार के समस्त रोगों का नाशक है।मै उस चरण धूल की वंदना करता हूॅ।
263.
➡ बंदउ गुरू पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि
महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर।
अर्थ : गुरू कृपा के सागर मानव रूप में भगवान है जिनके वचन माया मोह के घने अंधकार का विनाश करने हेतु सूर्य किरण के सदृश्य हैैैैैैैं ं। मै उसगुरू के कमल रूपी चरण की विनती करता हूॅ।
Tulsidas Dohe On Devotion - तुलसीदास के दोहे भक्ति पर
➡ कमठ पीठ जामहिं बरू बारा।बंध्यासुत बरू काहुहिं मारा।
फूलहिं नभ बरू बहु बिधि फूला।जीवन लह सुख हरि प्रतिकूला।
अर्थ : कछुआ की पीठ पर बाल उग सकता है।बाॅझ का बेटा भले किसी को मार दे। आकाश में अनेक किस्म के फूल खिल जायें लेकिन प्रभु से विमुख जीव सुख नही पा सकता है।
265.
➡ ब्रम्ह पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।
अर्थ : बेद समुद्र ज्ञान मंदराचल पर्वत संत देवता हैं जो समुद्र को मथकर कथा रूप में अमृत निकालते हैं जिसमें भक्ति की मिठास बसी रहती है।
266.
➡ भगति करत बिनु जतन प्रयासा।संसृति मूल अविद्या नासा।
अर्थ : ईश्वर भक्ति संसार रूपी अविद्या को बिना प्रयास परिश्रम के नश्ट कर देता है।
267.
➡ ईश्वर अंस जीव अविनासी।चेतन अमल सहज सुखरासी।
अर्थ : जीव ईश्वर का हीं अंश है। अतएव वह चेतन अविनासी निर्मल एवं स्वभाव से हीं सुख से सम्पन्न है।
268.
➡ जे असि भगति जानि परिहरहीं।केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।
ते जड़ कामधेनु गृॅह त्यागी।खोजत आकु फिरहिं पय लागी।
अर्थ : जो भक्ति की महत्ता जानकर भी उसे नही अपनाते एवं निरा ज्ञान के लिये परिश्रम करते हैं वे मूर्ख घर के कामधेनु को छोड़ दूध के लिये आक के पेड़ को खोजते फिर रहे हैं।
269.
➡ सुनु खगेस हरि भगति बिहाईं।जे सुख चाहहिं आन उपाई।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी।पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।
अर्थ : जो लोग ईश्वर की भक्ति के बिना अन्य उपायों से सुख चाहते हैं वे मूर्ख और अभागे बिना जहाज के तैर कर महासागर के पार जाना चाहते हैं।
270.
➡ प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी।ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।
इहाॅ मोह कर कारन नाहीं।रवि सन्मुख तम कवहुॅ कि जाही।
अर्थ : प्रकृति से परे ईश्वर सबके हृदय में बसते हैं।वे इच्छारहित विकारों से विलग अविनासी ब्रह्म हैं। प्रभु किसी मोह के कारण नहीं हैं।अन्धकार समूह क्या कभी सूर्य के समक्ष जा सकता हैं।
271.
➡ अगुन अदभ्र गिरा गोतीता।सबदरसी अनबद्य अजीता।
निर्मम निराकार निरमोहा।नित्य निरंजन सुख संदोहा।
अर्थ : ईश्वर उस माया के लक्षणों से रहित महान शब्द और इन्द्रियों से अलग सब कुछ देखने बाला निर्दोस अविजित ममतारहित निराकार मोहरहित नित्य सर्वदा मायारहित सुख का भंडार है।
272.
➡ सोइ सर्वग्य तग्य सोइ पंडित।सोइ गुन गृह विज्ञान अखंडित।
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई।जाकें पद सरोज रति होई।
अर्थ : वह सर्वग्य तत्वज्ञ एवं पंडित है।वह गुणों का घर एवं अखंड ज्ञानी विद्वान है। वह चतुर और सभी अच्छे गुणों से युक्त है जिसे प्रभु के चरणों में प्रेम है।
273.
➡ प्रीति सदा सज्जन संसर्गा।तृन सम विशय स्वर्ग अपवर्गा।
भगति पच्छ हठ नहि सठताई।दुश्ट तर्क सब दूरि बहाई।
अर्थ : संतो की संगति से जिसे हमेशा पे्रम रहे जिसके मन मे विसय भोग स्वर्ग एवं मोक्ष सब घास के तिनके की तरह तुच्छ हो जो भक्ति के लिये हठी हो जो दूसरों के विचार का खण्डन करने की मूर्खता नही करता हो जिसने सभी कुतर्कों को दूर कर दिया हो-वही सच्चा भक्त है।
274.
➡ बैर न विग्रह आस न त्रासा।सुखमय ताहि सदा सब आसा।
अनारंभ अनिकेत अमानी।अनघ अरोस दच्छ विग्यानी।
अर्थ : किसी से भी शत्रुता लड़ाई झगड़ा न आशा न भय रखना हीं काफी है। उसके लिये सभी तरफ सुख हीं सुख है। कभी भी फल की आशा से कर्म न करे।घर से कोई विसेश मोह ममता न रखे। इज्जत पाने की चिन्ता न रखे।
पाप और क्रोध से दूर रहे-वही भक्ति में कुशल और ज्ञानी है।
275.
➡ कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई।जथा लाभ संतोश सदाई।
अर्थ : भक्ति के रास्ते में कोई परिश्रम नही है।इसके लिये न योग जप तपस्या या उपवास करने की जरूरत है। केवल स्वभाव की सरलता मन में कुटिलता का त्याग एवं जितना मिले उसी में संतोस करना हीं पर्याप्त है।
276.
➡ आस त्रास इरिसादि निवारक।विनय विवेक विरति विस्तारक।
अर्थ : ईश्वर सांसारिक भोगों की आशा भय ईश्र्या आदि के निवारण करने वाले तथा विनयशीलता विवेक बुद्धि और वैराग्य के बढ़ाने बाले हैं।
277.
➡ जे ब्रह्म अजम द्वैतमनु भवगम्य मन पर ध्यावहीं।
अर्थ : ब्रह्म अजन्मा एवं अद्वैत है।वह केवल अनुभव से जाना जाता है।वह मन से परे है।
278.
➡ जन रंजन भंजन सोक भयं ।गत क्रोध सदा प्रभु बोध मयं।
अवतार उदार अपार गुनं।महि भार विभंजन ग्यान घनं।
अर्थ : प्रभु अपने सेवकों को आनंन्दित करने बाले दुख और डर के नाशक हमेशा क्रोध रहित एवं नित्य ज्ञानस्वरूप हैं। ईश्वर अनन्त दिब्य गुणों बाला पृथ्वी का बोझ उतारने बाला और ज्ञान के अक्षय भंडार हैं।
279.
➡ तुम्ह समरूप ब्रहम अविनासी।सदा एकरस सहज उदासी।
अकल अगुन अज अनघ अनामय।अजित अमोघ सक्ति करूनामय।
अर्थ : ईश्वर समरूप ब्रहम अविनाशी नित्य एकरस शत्रुता मित्रता से उदासीन अखण्ड निर्गुण अजन्मा निश्पाप निर्विकार अजेय अमोघ शक्ति एवं दयामय है।
280.
➡ बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम
तिन्ह के हृदय कमल महुॅ करउॅ सदा विश्राम।
अर्थ : जिन्हें बचन मन और कर्म से सर्वदा ईश्वर में घ्यान रहता है तथा जो विना किसी इच्छा के उनका भजन करते हैं -ईश्वर सर्वदा उनके हृदय कमल के बीच विश्राम करते हैं।
281.
➡ मम गुन गावत पुलक सरीरा।गदगद गिरा नयन बह नीरा।
काम आदि मद दंभ न जाके।तात निरंतर बस में ताके।
अर्थ : ईश्वर का गुण गाते समय जिसका शरीर अत्यंत आनंन्दित हो जाये और जिसकी आॅखों से प्रेम के आॅसू बहने लगे तथा जिसमें काम घमंड गर्व आदि न हो-ईश्वर सर्वदा उसके अधीन रहते हैं।
282.
➡ भगति तात अनुपम सुख मूला।मिलइ जो संत होइॅ अनुकूला।
अर्थ : भक्ति अनुपम सुख की जड़ है।यह तभी प्राप्त होता है जब संत प्रसन्न होते हैं।
283.
➡ जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पाबई
अर्थ : ज्ञान गुण और इन्द्रियों से परे जप योग और समस्त धर्मों से मनुश्य अनुपम भक्ति पाता है।
284.
➡ प्रभु अपने नीचहु आदरहीं।अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।
अर्थ : ईश्वर अपने नीच लोगों का भी आदर करते हैं।आग धुआॅ और पहाड़ घास को अपने सिर पर धारण करता है।
285.
➡ कनकहिं बान चढई जिमि दाहें।तिमि प्रियतम पद नेम निबाहे।
अर्थ : जैसे सोने को आग में तपाने से उसकी चमक बढ जाती है उसी प्रकार प्रियतम के चरणों में प्रेम का निर्वाह करने पर प्रेमी सेवक की प्रतिश्ठा बढ जाती है।
286.
➡ सब के प्रिय सब के हितकारी।दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।
कहहिं सत्य प्रिय वचन विचारी।जागत सोवत सरन तुम्हारी।
अर्थ : जो सबों के प्रिय और हित करने बाले दुख सुख प्रसंशा और निन्दा सब में समान रहते हैं तथा जो सर्वदा विचार कर सत्य एवं प्रिय बोलने बाले एवं जो जागते सोते हमेशा ईश्वर की हीं शरण में रहते हैं।
287.
➡ काम कोह मद मान न मोहा।लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।
जिन्ह के कपट दंभ नहि माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।
अर्थ : जिनको काम वासना क्रोध घमंड अभिमान और मोह नहीं है और न हीं राग द्वेश छल कपट घमंड या माया लेशमात्र भी नही है भगवान उसी के हृदय में निवास करते हैं।
288.
➡ करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार
तब लगि सुखु सपनेहुॅ नहीं किएॅ कोटि उपचार।
अर्थ : कर्म वचन मन से छल छोड़कर जब तक ईश्वर का दास नहीं बना जाये तब तक करोड़ों उपाय करने पर भी स्वप्न में भी सुख नही मिल सकता है।
289.
➡ राम चरण पंकज प्रिय जिन्हहीं।विशय भोग बस करहिं कि तिन्हहीं।
अर्थ : जिन्हें श्रीराम के चरण कमल प्रिय हैं उन्हें विशय भोग कभी बस में नहीं कर सकते हैं।
290.
➡ नयन विशय मो कहुॅ भयउ सो समस्त सुख मूल
सबइ लाभु जग जीव कहॅ भएॅ ईसु अनुकूल।
अर्थ : प्रभु हमारी आॅखों के लिये सम्पूर्ण सुखों के मूल हैं तथा प्रभु के अनुकूल होने पर संसार में जीव को सब लाभ प्राप्त होता है।
291.
➡ मन समेत जेहि जान न वानी।तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।
महिमा निगमु नेति कहि कहई।जो तिहुॅ काल एकरस रहई।
अर्थ : जिन्हें पूरे मन से शब्दों द्वारा ब्यक्त नहीं किया जा सकता-जिनके बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता-जिनकी महिमा बेदों में नेति कहकर वर्णित है और जो हमेशा एकरस निर्विकार रहते हैं।
292.
➡ करहिं जोग जोगी जेहि लागी।कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी।चिदानंदु निरगुन गुनरासी।
अर्थ : योगी जिस प्रभु के लिये क्रोध मोह ममता और अहंकार को त्यागकर योग साधना करते हैं- वे सर्वव्यापक ब्रह्म अब्यक्त अविनासी चिदानंद निर्गुण और गुणों के खान हैं।
293.
➡ तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय
जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन।
अर्थ : प्रभु पूर्णकाम सज्जनों के शिरोमणि और प्रेम के प्यारे हैं। प्रभु भक्तों के गुणग्राहक बुराईयों का नाश करने बाले और दया के धाम हैं।
294.
➡ हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना।
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही। कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।
अर्थ : भगवान सब जगह हमेशा समान रूप से रहते हेै औेेर प्रेम से बुलाने पर प्रगट हो जाते हेंैं वे सभी देश विदेश एव दिशाओं में ब्याप्त हैं।कहा नही जा सकता कि प्रभु कहाॅ नही हैं।
295.
➡ तपबल तें जग सुजई बिधाता।तपबल बिश्णु भए परित्राता।
तपबल शंभु करहि संघारा।तप तें अगम न कछु संसारा।
अर्थ : तपस्या से कुछ भी प्राप्ति दुर्लभ नही है।इसमें शंका आश्र्चय करने की कोई जरूरत नही है। तपस्या की शक्ति से हीं ब्रह्मा ने संसार की रचना की है और तपस्या की शक्ति से ही बिश्णु इस संसार का पालन करते हैं।
तपस्या द्वारा हीं शिव संसार का संहार करते हैं। दुनिया में ऐसी कोई चीज नही जो तपस्या द्वारा प्राप्त नही किया जा सकता है।
296.
➡ प्रभु जानत सब बिनहि जनाएॅं।कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए।
अर्थ : प्रभु तो बिना बताये हीं सब जानते हैं। अतः संसार को प्रसन्न करने से कभी भी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती।
297.
➡ हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता।
रामचंन्द्र के चरित सुहाए।कलप कोटि लगि जाहि न गाए।
अर्थ : भगवान अनन्तहेैैैैेेे ंउनकी कथा भी अनन्त है। संत लोग उसे अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। श्रीराम के सुन्दर चरित्र करोडों युगों मे भी नही गाये जा सकते हैं।
298.
➡ सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा।गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा।
अगुन अरूप अलख अज जोई।भगत प्रेम बश सगुन सो होई।
अर्थ : सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है।मुनि पुराण पन्डित बेद सब ऐसा कहतेेेेे। जेा निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है।
299.
➡ कुलिस कठोर निठुर सोई छाती।सुनि हरि चरित न जो हरसाती।
अर्थ : उसका हृदय बज्र की तरह कठोर और निश्ठुर है जो ईश्वर का चरित्र सुनकर प्रसन्न हर्शित नही होता हैं।
300.
➡ जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी। जीवत सब समान तेइ प्राणी।
जो नहि करई राम गुण गाना।जीह सो दादुर जीह समाना।
अर्थ : जिसने भगवान की भक्ति को हृदय में नही लाया वह प्राणी जीवित मूर्दा के समान है।जिसने प्रभु के गुण नही गाया उसकी जीभ मेढक की जीभ के समान है।
301.
➡ जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना।श्रवण रंध्र अहि भवन समाना।
अर्थ : जिसने अपने कानों से प्रभु की कथा नही सुनी उसके कानों के छेद साॅप के बिल के समान हैं।
302.
➡ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें।जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने।
जेहि जाने जग जाई हेराई।जागें जथा सपन भ्रम जाई।
अर्थ : ईश्वर को नही जानने से झूठ सत्य प्रतीत होता है।बिना पहचाने रस्सी से साॅप का भ्रम होता है। लेकिन ईश्वर को जान लेने पर संसार का उसी प्रकार लोप हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम मिट जाता है।
303.
➡ सासति करि पुनि करहि पसाउ।नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
अर्थ : अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि वे पहले दण्ड देकर फिर दया करते हैं।
304.
➡ भगति निरुपन बिबिध बिधाना।क्षमा दया दम लता विताना।
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना।
अर्थ : अनेक तरह से भक्ति करना एवं क्षमा दया इन्द्रियों का नियंत्रण लताओं के मंडप समान हैं।मन का नियमन अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह शौच संतोश तप स्वाध्याय ईश्वर प्राणधन भक्ति के फूल और ज्ञान फल है।भगवान के चरणों में प्रेम भक्ति का रस है। बेदों ने इसका वर्णन किया है।
305.
➡ ब्यापक एकु ब्रह्म अविनाशी।सत चेतनघन आनन्द रासी।
अर्थ : ब्रह्म अनन्त एवं अविनाशी सत्य चैतन्य औरआनंन्द के भंडार का सत्ता है।
306.
➡ सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन
नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन।
अर्थ : जो सभी इच्छाओं को छोड कर राम भक्ति के रस मेंलीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते -वही सच्चा भक्त है।
307.
➡ जपहिं नामु जन आरत भारी।मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।
राम भगत जग चारि प्रकारा।सुकृति चारिउ अनघ उदारा।
अर्थ : संकट में पडे भक्त नाम जपते हैं तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। संसार में चार तरह के अर्थाथी;आर्त;जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते हैं।
308.
➡ सो केवल भगतन हित लागी।परम कृपाल प्रनत अनुरागी।
जेहि जन पर ममता अति छोहू।जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू।
अर्थ : प्रभु भक्तों के लिये हीं सब लीला करते हैं। वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं। भक्त पर उनकी ममता रहती है।वे केवल करूणा करते हैं। वे किसी पर क्रोध नही करते हैं।
309.
➡ एक अनीह अरूप अनामा।अज सच्चिदानन्द पर धामा।
ब्यापक विश्वरूप भगवाना।तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।
अर्थ : प्रभु एक हैं। उन्हें कोई इच्छा नही है। उनका कोई रूप या नाम नही है। वे अजन्मा औेर परमानंद परमधाम हैं।वे सर्वब्यापी विश्वरूप हैं। उन्होंने अनेक रूप शरीर धारण कर अनेक लीलायें की हैं।
310.
➡ मूक होई बाचाल पंगु चढई गिरिवर गहन
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।
अर्थ : ईश्वर कृपा से गूंगा अत्यधिक बोलने बाला और लंगडा भी उॅचे दुर्गम पहाड पर चढने लायक हो जाता है। ईश्वर कलियुग के समस्त पापों विकारों को नश्ट करने वाला परम दयावान है।
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