बिहारी के सर्वश्रेष्ठ दोहे | 41 Best Bihari Ke Dohe With Meaning in Hindi With HD Images
Top Bihari Ke Dohe Pad Sakhi in Hindi : महाकवि बिहारीलाल का जन्म 1603 के लगभग ग्वालियर में हुआ। उनके पिता का नाम केशवराय था व वे माथुर चौबे जाति से संबंध रखते थे।
बिहारी का बचपन बुंदेल खंड में बीता और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत की। उनके एक दोहे से उनके बाल्यकाल व यौवनकाल का मान्य प्रमाण मिलता है.
इस पोस्ट मे पढ़िये बिहारी के बहेतरीन दोहे हिन्दी मे।
बिहारी के सर्वश्रेष्ठ दोहे अर्थ सहित हिन्दी मे ( फोटोस के साथ )
- 1 -
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात ।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात ।।
अर्थ : इस दोहे में कवि बिहारी ने उस नायिका की मनो स्थिति का चित्रण किया है जो अपने प्रेमी के लिए संदेश भेजना चाहती है। नायिका को इतना लम्बा संदेश भेजना है कि वह कागज पर समा नहीं पाएगा। लेकिन अपने संदेशवाहक के सामने उसे वह सब कहने में शर्म भी आ रही है। नायिका संदेशवाहक से कहती है कि तुम मेरे अत्यंत करीबी हो इसलिए अपने दिल से तुम मेरे दिल की बात कह देना।
- 2 -
घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई ।।
अर्थ : बिहारी लाल जी कहते है कि लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।
- 3 -
प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ ।।
अर्थ : संत बिहारी जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने स्वयं ही ब्रज में चंद्रवंश में जन्म लिया अर्थात अवतार लिया था। बिहारी के पिता का नाम केसवराय था। इसलिए वे कहते हैं कि हे कृष्ण आप तो मेरे पिता समान हैं इसलिए मेरे सारे कष्ट को दूर कीजिए ।
- 4 -
कहा कहूँ बाकी दसा, हरि प्राननु के ईस ।
विरह-ज्वाल जरिबो लखै, मरिबौ भई असीस ।।
अर्थ : नायिका की सखी नायक से कहती है- हे नायिका के प्राणेश्वर ! नायिका की दशा के विषय में तुम्हें क्या बताऊँ, विरह-अग्नि में जलता देखती हूँ तो अनुभव करती हूँ कि इस विरह पीड़ा से तो मर जाना उसके लिए अच्छा होगा।
- 5 -
कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार ।
मो संपति जदुपति सदा, विपत्ति-बिदारनहार ।।
अर्थ : बिहारी जी श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोड़ एकत्र करे या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।
- 6 -
स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि ।।
अर्थ : हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात बिहारी कवि को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा, हे बाज़ ! दूसरे व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो
- 7 -
दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़ै दुख-दंदु।
अधिक अन्धेरो जग करैं मिल मावस रवि चंदु ।।
अर्थ : बिहारी जी कहते हैं कि यदि किसी राज्य में दो राजा शासन करेंगे तो उस राज्य की जनता का दोहरा दुख क्यों नहीं बढ़ेगा; अर्थात अवश्य ही बढ़ेगा ? क्योंकि जब एक ही राज्य में दो राजा होंगे तो उस राज्य की प्रजा को दोनों राजाओं की आज्ञाओं का पालन करना पड़ेगा और दोनों राजाओं के लिए सुख सुविधाओं की व्यवस्था करनी पड़ेगी। यह वैसे ही है जैसे अमावस्या की तिथि को सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में मिलकर संपूर्ण संसार को और अधिक अंधकारमय कर देते हैं।
- 8 -
पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास ।।
अर्थ : उस नायिका के घर के चारों ओर पत्रा (पंचांग) ही में तिथि पाई जाती है- तिथि निश्चय कराने के लिए पत्रा ही की शरण लेनी पड़ती है; क्योंकि (उसके) मुख की चमक और प्रकाश से वहाँ सदा पूर्णिमा ही बनी रहती है- उसके मुख की चमक और प्रकाश देखकर लोग भ्रम में पड़ जाते हैं कि पूर्ण चन्द्र की चाँदनी छिटक रही है।
- 9 -
औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात ।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी जी ने ऐसी नायिका का चित्रण किया है जो अपने नायक से अलग हो गई है और उसके उसके बिरह ज्वाला में जल रही है। ऐसी स्थिति में उस नायिका के सखियां आपस में बात करते हुए कहते हैं कि वह अपने प्रेमी से अलग होकर उसके बिरह की प्रचंड अग्नि में जल रही है। उसकी यह दशा अत्यंत दुखद एवं करुणादायीं है।
- 10 -
कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सब बात ।।
अर्थ : गुरुजनों की उपस्थिति के कारण कक्ष में नायक-नायिका मुख से वार्तालाप करने में असमर्थ हैं। आंखों के संकेतों के द्वारा नायक नायिका को काम-क्रीड़ा हेतु प्रार्थना करता है, नायिका मना कर देती है, नायक उसकी ना को हाँ समझ कर रीझ जाता है। नायिका उसे खुश देखकर खीझ उठती है। अंत मे दोनों में समझौता हो जाता है। नायक पुनः प्रसन्न हो जाता है। नायक की प्रसन्नता को देखकर नायिका लजा जाती है। इस प्रकार गुरुजनों से भरे भवन में नायक-नायिका नेत्रों से परस्पर बातचीत करते हैं।
- 11 -
बढत-बढत संपत्ति-सलिल मन-सरोज बढि जाय ।
घटत-घटत पुनि ना घटे बरु समूल कुमलाय ।।
अर्थ : बिहारी जी कहते हैं कि जिस तालाब में कमल होता है यदि उस तालाब में पानी बढ़ता है तो पानी के बढ़ने के साथ ही साथ कमल की नाल भी बढ़ती चली जाती है लेकिन जब तालाब का पानी उतरने लगता है तो कमल की बढ़ी हुई नाल छोटी नहीं हो पाती है, इसलिए वह पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है। अर्थात मनुष्य द्वारा अर्जित धन का उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ता है।
- 12 -
कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु ।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु ।।
अर्थ : बिहारी जी इस दोहे में कहते हैं की, “जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितनी भी कोशिश कर ले, पर जैसे पानी से नमक को अलग करना असंभव है वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना भी असम्भव है।”
- 13 -
जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात ।।
अर्थ : नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती है कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।
- 14 -
या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ ।।
अर्थ : इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है, वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।
- 15 -
अंग-अंग नग जगमगत, दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह ।।
अर्थ : बिहारी जी इस दोहे में कहते हैं कि नायिका का प्रत्येक अंग रत्न की भाँति जगमगा रहा है, उसका तन दीपक की शिखा की भाँति झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।
- 16 -
नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि ।
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि ।।
अर्थ : बिहारी लाल जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि कान्हा शायद तुम्हेँ भी अब अनदेखा करना अच्छा लगने लगा हैं या फिर मेरी पुकार फीकी पड़ गयी हैं मुझे लगता है की हाथी को तरने के बाद तुमने अपने भक्तों की मदत करना छोड़ दिया।
- 17 -
सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम ।।
अर्थ : अर्थात विरह की आग में जल रही प्रेमिका के अंदर इतनी अग्नि होती है मानो माघ के माह (फरवरी के महीने ) में में भी लू सी ताप रही हो जैसे की वो किसी लुहार की धौकनी हो।
- 18 -
तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आवै कीन्हि बाट।
विकट जटे जौं लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट ।।
अर्थ : बिहारी जी कहते हैं कि जिस प्रकार घर का दरवाजा बंद होने पर उसमें कोई तब तक प्रवेश नहीं कर सकता है जब तक कि उसका दरवाजा खोला ना जाए, इसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने मन में छल और कपट के दरवाजे खोल नहीं देता तब तक उस मनुष्य के मन में भगवान प्रवेश नहीं कर सकते हैं। अर्थात यदि मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति चाहता है तो उसको अपने मन से छल कपट को दूर करके अपने मन निर्मल करना होगा।
- 19 -
मैं समुझयौ निरधार, यह जगु काँचो कांच सौ।
एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ ।।
अर्थ : कवि बिहारी कहते हैं कि इस सत्य को मैंने जान लिया है कि यह संसार निराधार है। यह काँच के समान कच्चा है अर्थात मिथ्या है। कृष्ण का सौन्दर्य अपार है जो सम्पूर्ण संसार मे प्रतिबिम्बित हो रहा है।
- 20 -
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह ।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह ।।
अर्थ : इस दोहे में कवि बिहारी लाल ने जेठ महीने की गर्मी का चित्रण किया है। जेठ की गरमी इतनी तेज होती है कि छाया भी छाया ढ़ूँढ़ने लगती है। ऐसी गर्मी में छाया भी कहीं नजर नहीं आती। वह या तो कहीं घने जंगल में बैठी होती है या फिर किसी घर के अंदर है ।
- 21 -
गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूढे जहां हजारु ।
बहे सदा पसु नरनु कौ प्रेम-पयोधि पगारु ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि पर्वत से भी ऊंची रसिकता वाले प्रेमी जन प्रेम के सागर में हज़ार बार डूबने के बाद भी उसकी थाह नहीं ढूंढ पाए, वहीं नर -पशुओं को अर्थात अरसिक प्रवृत्ति के लोगों को वो प्रेम का सागर छोटी खाई के समान प्रतीत होता है।
- 22 -
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव ।।
अर्थ : बिहारी जी कहते हैं – मैं ही पागल हूँ या सारा गाँव पागल है। ये कैसे कहते हैं कि चन्द्रमा का नाम शीतकर (शीतल करने वाला) है ?
- 23 -
काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन ।
आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा ।।
अर्थ : इस दोहे में अतियोक्ति का परिचय होता हैं बिहारी कहते हैं की सुहागन आँखों में काजल मत लगाया करो वरना तुम्हारी आँखें गँड़ासे यानि एक घास काटने के अवजार जैसी हो जाएँगी।
- 24 -
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच ।।
अर्थ : बिहारी जी इस दोहे में कहते हैं की कोई भी मनुष्य चाहें कितना भी प्रयास क्यों न कर ले फिर भी उसका स्वभाव नहीं बदल सकता जैसे पानी नल में उपर तक तो चढ़ जाता हैं लेकिन फिर भी उसका स्वभाव हैं नहीं बदलता और वो बहता नीचे तरफ ही है।
- 25 -
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं, यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनमें क्यों न गहरा प्रेम हो, एक वृषभानु की पुत्री हैं, दूसरे बलराम के भाई हैं। दूसरा अर्थ है: एक वृषभ (बैल) की अनुजा (बहन) हैं और दूसरे हलधर (बैल) के भाई हैं। यहाँ श्लेष अलंकार है।
- 26 -
मोहन-मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोई।
बसतु सु चित्त अन्तर, तऊ प्रतिबिम्बितु जग होइ ।।
अर्थ : बिहारी जी ने इस दोहे में कहा है कि कृष्ण की मनमोहक मूर्ति की गति अनुपम है। कृष्ण की छवि बसी तो हृदय में है और उसका प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण संसार मे पड़ रहा है।
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जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे रामु ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति करने में बाहरी आडंबरों जैसे कि समाज को दिखाने के लिए पूजा करना, लोगों को दिखाने के लिए गले में अनेक प्रकार की मालाओं को धारण करना, और अपने आप को ईश्वर का बहुत बड़ा भक्त दिखाने के लिए तरह-तरह के तिलक छापे लगाना आदि से कोई भी काम पूरा नहीं होता है।
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बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी ने गोपियों द्वारा कृष्ण की बाँसुरी चुराए जाने का वर्णन किया है। गोपियों ने कृष्ण की मुरली इसलिए छुपा दीै । ताकि इसी बहाने उन्हें कृष्ण से बातें करने का मौका मिल जाए। साथ में गोपियाँ कृष्ण के सामने नखरे भी दिखा रही हैं। वे अपनी भौहों से तो कसमे खा रही हैं । लेकिन उनके मुँह से ना ही निकलता है।
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लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी ने नायिका के अतिशय सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहा है कि नायिका के सौंदर्य का चित्रांकन करने को गर्वीले ओर अभिमानी चित्रकार आए पर उन सबका गर्व चूर-चूर हो गया। कोई भी उसके सौंदर्य का वास्तविक चित्रण नहीं कर पाया क्योंकि क्षण-प्रतिक्षण उसका सौंदर्य बढ़ता ही जा रहा था।
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मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल ।।
अर्थ : बिहारी अपने इस दोहे में कहते हैं हे कान्हा, तुम्हारें हाथ में मुरली हो, सर पर मोर मुकुट हो तुम्हारें गले में माला हो और तुम पीले रंग की धोती पहने रहो इसी रूप में तुम हमेशा मेरे मन में बसते हो।
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तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान ।।
अर्थ : राधा को ऐसा लग रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है ; हे राधिका अच्छे से जान लो, कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।
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कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय ।।
अर्थ : कवि बिहारी अपने इस दोहे के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कान्हा मैं कब से तुम्हे व्याकुल होकर पुकार रहा हूँ और तुम हो कि मेरी पुकार सुनकर भी मेरीमदद नहीं कर रहे हो, मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।
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अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट जोति।
हरि बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रँग होति ।।
अर्थ : इस दोहे में राधा जी की सखी कृष्ण जी के मुरली से प्रभावित होकर उनसे कहती है कि जब श्री कृष्ण हरे बांस की बांसुरी को बजाने के लिए, लालिमा लिए हुए अपने होठों पर रखते है और जब उनके काले नैनो का रंग और श्री कृष्ण जी के द्वारा पहने हुए पीले रंग के वस्त्रों का पीला रंग, उस हरे बांस की बांसुरी पर पड़ता है तो वह हरे रंग के बांस की बांसुरी इंद्रधनुष के समान सात रंगों में चमक उठती हैं अर्थात बहुत सुंदर एवं आकर्षक प्रतीत होती है।
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कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है, सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।
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कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ ।।
अर्थ : भीषण गर्मी से बेहाल जानवर एक ही स्थान पर बैठे हैं। मोर और सांप एक साथ बैठे हैं। हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं। कवि को लगता है कि गर्मी के कारण जंगल किसी तपोवन की तरह हो गया है। जैसे तपोवन में विभिन्न इंसान आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठते हैं, उसी तरह गर्मी से बेहाल ये पशु भी आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठे हैं।
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दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति ।।
अर्थ : प्रेम की रीति अनूठी है। इसमें उलझते तो नयन है, पर परिवार टूट जाते हैं, प्रेम की यह रीति नई है इससे चतुर प्रेमियों के चित्त तो जुड़ जाते हैं पर दुष्टों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।
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घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि ।।
अर्थ : राज कवि बिहारी जी की बात सुनकर राजा जयसिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने अपनी गलती सुधारते हुए अपने राज्य की रक्षा की।
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नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल ।।
अर्थ : बिहारी जी ने राजा को व्यगं करते हुए यह कहा कि विवाह के बाद वे अपने जीवन में रसमय हो गये हैं और विकास कार्य की तरफ उनका कोई ध्यान नहीं हैं और राजकीय कार्य से भी दूर हैं ऐसे मैं कौन राज्य भार सम्भालेगा।
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सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात ।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारी ने श्री कृष्ण के साँवले शरीर की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा है कि, कृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे नीलमणि पहाड़ पर सुबह की सूरज की किरणें पड़ रही हो।
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मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झांई परै, श्याम हरित-दुति होय ।।
अर्थ : इस दोहे के दो अर्थ हैं इस दोहे के में बिहारी लाल श्री कृष्ण के साथ विराजमान होने वाली श्रृंगार की अधिष्ठात्री देवी राधिका जी की स्तुति करते हैं। राधा जी के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने लगते है। दूसरा अर्थ है कि राधा की छाया पड़ने से कृष्ण हरित (प्रसन्न) हो उठते हैं।
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सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।
अर्थ : कविवर बिहारी कह रहे हैं कि उनकी रचना सतसई के दोहे देखने में छोटे हैं जैसे नावक एक प्रकार का तीर जो बहुत छोटा होता हैं लेकिन गहरा गंभीर घाव छोड़ता हैं | उसी प्रकार सतसई के दोहे छोटे हैं लेकिन उनमे अथाह ज्ञान समाहित हैं |
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