मीरा बाई के सर्वश्रेष्ठ दोहे | 50 Best Meera Bai Ke Dohe With Meaning in Hindi With HD Images
Top Meera Bai Dohe, Pad And Poems in Hindi With Meaning : मीराबाई सोलहवीं शताब्दी की एक कृष्ण भक्त और कवयित्री थीं। उनकी कविता कृष्ण भक्ति के रंग में रंग कर और गहरी हो जाती है। मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है। मीरा कृष्ण की भक्त हैं।
मीरा बाई के सर्वश्रेष्ठ दोहे अर्थ सहित हिन्दी मे ( फोटोस के साथ )
- 1 -
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई|
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई ||
अर्थ : मेरे ना पिता हैं, ना माता, ना ही कोई भाई पर मेरे हैं गिरधर गोपाल.
- 2 -
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई |
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई ||
अर्थ : मीरा कहती हैं – मेरे तो बस श्री कृष्ण हैं जिसने पर्वत को ऊँगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया. उसके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती. जिसके सिर पर मौर का पंख का मुकुट हैं वही हैं मेरे पति.
- 3 -
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो. पायो जी मैंने
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो. पायो जी मैंने
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो. पायो जी मैंने
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो. पायो जी मैंने
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो. पायो जी मैंने
अर्थ : मीरा ने रान नाम का एक अलोकिक धन प्राप्त कर लिया हैं. जिसे उसके गुरु रविदास जी ने दिया हैं.इस एक नाम को पाकर उसने कई जन्मो का धन एवम सभी का प्रेम पा लिया हैं.यह धन ना खर्चे से कम होता हैं और ना ही चोरी होता हैं यह धन तो दिन रात बढ़ता ही जा रहा हैं. यह ऐसा धन हैं जो मोक्ष का मार्ग दिखता हैं. इस नाम को अर्थात श्री कृष्ण को पाकर मीरा ने ख़ुशी – ख़ुशी से उनका गुणगान गाया.
- 4 -
मन रे परसी हरी के चरण सुभाग शीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वालाहरण
जिन चरण ध्रुव अटल किन्ही रख अपनी शरण
जिन चरण ब्रह्माण भेद्यो नख शिखा सिर धरण
जिन चरण प्रभु परसी लीन्हे करी गौतम करण
जिन चरण फनी नाग नाथ्यो गोप लीला करण
जिन चरण गोबर्धन धर्यो गर्व माधव हरण
दासी मीरा लाल गिरीधर आगम तारण तारण
मीरा मगन भाई लिसतें तो मीरा मगनभाई
अर्थ : मीरा का मन सदैव कृष्ण के चरणों में लीन हैं.ऐसे कृष्ण जिनका मन शीतल हैं. जिनके चरणों में ध्रुव हैं. जिनके चरणों में पूरा ब्रह्माण हैं पृथ्वी हैं. जिनके चरणों में शेष नाग हैं. जिन्होंने गोबर धन को उठ लिया था. ये दासी मीरा का मन उसी हरी के चरणों, उनकी लीलाओं में लगा हुआ हैं.
- 5 -
मै म्हारो सुपनमा पर्नारे दीनानाथ
छप्पन कोटा जाना पधराया दूल्हो श्री बृजनाथ
सुपनमा तोरण बंध्या री सुपनमा गया हाथ
सुपनमा म्हारे परण गया पाया अचल सुहाग
मीरा रो गिरीधर नी प्यारी पूरब जनम रो हाड
मतवारो बादल आयो रे लिसतें तो मतवारो बादल आयो रे
अर्थ : मीरा कहती हैं कि उनके सपने में श्री कृष्ण दुल्हे राजा बनकर पधारे. सपने में तोरण बंधा था जिसे हाथो से तोड़ा दीनानाथ ने.सपने में मीरा ने कृष्ण के पैर छुये और सुहागन बनी.
- 6 -
मतवारो बादल आयें रे
हरी को संदेसों कछु न लायें रे
दादुर मोर पापीहा बोले
कोएल सबद सुनावे रे
काली अंधियारी बिजली चमके
बिरहिना अती दर्पाये रे
मन रे परसी हरी के चरण
लिसतें तो मन रे परसी हरी के चरण
अर्थ : बादल गरज गरज कर आ रहे हैं लेकिन हरी का कोई संदेशा नहीं लाये. वर्षा ऋतू में मौर ने भी पंख फैला लिए हैं और कोयल भी मधुर आवाज में गा रही हैं.और काले बदलो की अंधियारी में बिजली की आवाज से कलेजा रोने को हैं. विरह की आग को बढ़ा रहा हैं. मन बस हरी के दर्शन का प्यासा हैं.
- 7 -
मै म्हारो सुपनमा पर्नारे दीनानाथ।
छप्पन कोटा जाना पधराया दूल्हो श्री बृजनाथ।
सुपनमा तोरण बंध्या री सुपनमा गया हाथ।
सुपनमा म्हारे परण गया पाया अचल सुहाग।
मीरा रो गिरीधर नी प्यारी पूरब जनम रो हाड।
मतवारो बादल आयो रे। लिसतें तो मतवारो बादल आयो रे।।
अर्थ : मीरा अपने भजन में भगवान् कृष्ण से विनती कर रही हैं कि हे कृष्ण ! मैं दिन रात तुम्हारी राह देख रही हूँ. मेरी आँखे तुम्हे देखने के लिए बैचेन हैं मेरे मन को भी तुम्हारे दर्शन की ही ललक हैं.मैंने अपने नैन केवल तुम से मिलाये हैं अब ये मिलन टूट नहीं पायेगा. तुम आकर दर्शन दे जाओं तब ही मिलेगा मुझे चैन.
- 8 -
जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहूँ न पायों चैन।।
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपे मीठे-मीठे बैन।
बिरह कथा कांसुं कहूँ सजनी, बह गईं करवत ऐन।।
कल परत पल हरि मग जोंवत भई छमासी रेण।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे,
दुःख मेटण सुख देण।।
अर्थ : इस पद में मीराबाई जी कहती हैं कि हे प्रभु कित्नते दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए हैं , इसलिए आपके दर्शन की लालसा से मेरे नेत्र दुःख रहे हैं। जब से आप मुझसे अलग हुए हैं, मैने कभी चैन नही पाया हैं। कोई भी आवाज होती हैं तो मुझे लगता हैं आप आ रहे हैं, आपके दर्शन के लिए मेरा ह्रदय अधीर हो उठता हैं। और मुख से मीठे वचन निकलने लगते हैं।
पीड़ा में कड़वे शब्द तो होते ही नही हैं। मीरा कहती हैं, सखी मुझे भगवान से न मिलने की पीड़ा हो रही हैं, मै किसे अपनी विरह व्यथा सुनाऊ, वैसे भी इससे कोई फायदा भी तो नही हैं। इतनी असहनीय पीड़ा हो रही हैं, यदि कांशी में जाकर करवट बदलू तो भी यह कष्ट कम नही होता। पल-पल भगवान् की प्रतीक्षा ही किये रहती हु। उनकी प्रतीक्षा में यह समय बड़ा होने लग गया हैं, एक रात 6 महीने के बराबर लगती हैं आखिर में मीरा कहती हैं, प्रभु जब आप आकर मिलोगे तभी मेरी यह पीड़ा दूर होगी। आपके आने से ही सारा दुःख मिटेगा। आप आकर मेरा दुःख दूर कर दीजिए।
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भज मन! चरण-कँवल अविनाशी।
जेताई दीसै धरनि गगन विच, तेता सब उठ जासी।
इस देहि का गरब ना करणा, माटी में मिल जासी।
यों संसार चहर की बाजी, साझ पड्या उठ जासी।
कहा भयो हैं भगवा पहरया, घर तज भये सन्यासी।
जोगी होई जुगति नहि जांनि, उलटी जन्म फिर आसी।
अरज करू अबला कर जोरे, स्याम! तुम्हारी दासी।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर! काटो जम की फांसी।
अर्थ : प्रस्तुत पद में मीराबाई कहती हैं कि हे मेरे मन तू कभी नष्ट ना हो सकने वाले कृष्ण भगवान् के चरणों का ध्यान धरा कर। तुझे इस धरती और आसमान के बीच जो कुछ दिखाई दे रहा हैं वह एक दिन जरुर नष्ट हो जायेगा इसलिए यह जो तुम्हारा शरीर हैं इस पर बेकार में ही अहंकार कर रहे हो, यह भी एक दिन मिटटी में मिल जाएगा। यह संसार एक खेल की तरह हैं जिसकी बाजी शाम को खत्म हो जाती हैं । उसी प्रकार यह संसार भी नष्ट होने वाला हैं। भगवान् को प्राप्त करने के लिए भगवा वस्त्र धारण करना काफी नही हैं।
साथ ही मीराबाई जी कहती हैं कि साधू, सन्यासी बनने से भी न तो ईश्वर की प्राप्ति होती हैं और न ही जीवन मृत्यु के इस चक्कर से मुक्ति मिल पाती है। इसलिए अगर ईश्वर को प्राप्त करने की योजना नहीं अपनाई तो इस संसार में फिर से जन्म लेना पड़ेगा और वहीं मीराबाई ने अपने प्रभु से हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा है कि हे कृष्ण मै तुम्हारी दासी हूं, कृपया मुझे जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्ति दिलवाओ।
- 10 -
ऐरी म्हां दरद दिवाणी म्हारा दरद न जाण्यौ कोय
घायल री गत घायल जाण्यौ हिवडो अगण सन्जोय।।
जौहर की गत जौहरी जाणै क्या जाण्यौ जण खोय
मीरां री प्रभु पीर मिटांगा जो वैद साँवरो होय।।
अर्थ : इस पद में कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई जी कहती है – हे सखि मुझे तो प्रभु के प्रेम-वेदना भी पागल कर जाती है। इस पीड़ा को कोई नहीं समझ सका। समझता भी कैसे? क्योंकि इस दर्द को मात्र वही समझ सकता है जिसने इस दर्द को पहले सहा हो, प्रभु के प्रेम में घायल हुआ हो। मेरा हृदय तो इस आग को भी संजोए हुए है। गहनों को तो एक सोनार ही परख सकता है, जिसने प्रेम की पीड़ा रूपी यह अमूल्य गहना ही खो दिया हो वह क्या जानेगा। अब मीरा की पीड़ा तो तभी मिटेगी अगर सांवरे श्री कृष्ण ही वैद्य बन कर चले आएं।
- 11 -
माई री! मै तो लियो गोविन्दो मोल।
कोई कहे चान, कोई कहे चौड़े, लियो री बजता ढोल।।
कोई कहै मुन्हंगो, कोई कहे सुहंगो, लियो री तराजू रे तोल।
कोई कहे कारो, कोई कहे गोरो, लियो री आख्या खोल।।
याही कुं सब जग जानत हैं, रियो री अमोलक मोल।
मीराँ कुं प्रभु दरसन दीज्यो, पूरब जन्म का कोल।।
अर्थ : इस पद में मीरा बाई अपनी सखी से कहती हैं- माई मेने श्री कृष्ण को मोल ले लिया हैं। कोई कहता हैं, अपने प्रियतम को चुपचाप बिना किसी को बताए पा लिया हैं। कोई कहता हैं, खुल्लम खुला सबके सामने मोल लिया हैं।
मै तो ढोल-बजा बजाकर कहती हूँ बिना छिपाव दुराव सभी के सामने लिया हैं। कोई कहता हैं, तुमने सौदा महंगा लिया हैं तो कोई कहता हैं सस्ता लिया हैं। अरे सखी मेने तो तराजू से तोलकर गुण अवगुण देखकर मौल लिया हैं। कोई काला कहता हैं तो कोई गोरा मगर मैने तो अपनी आँखों को खोलकर यानि सोच समझकर कृष्ण को खरीदा हैं।
- 12 -
नैना निपट बंकट छबि अटके।
देखत रूप मदनमोहन को, पियत पियूख न मटके।
बारिज भवाँ अलक टेढी मनौ, अति सुगंध रस अटके॥
टेढी कटि, टेढी कर मुरली, टेढी पाग लट लटके।
'मीरा प्रभु के रूप लुभानी, गिरिधर नागर नट के॥
- 13 -
राणाजी, म्हे तो गोविन्द का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारे, नित उठ दरसण जास्यां॥
हरि मंदर में निरत करास्यां, घूंघरियां धमकास्यां।
राम नाम का झाझ चलास्यां भवसागर तर जास्यां॥
यह संसार बाड़ का कांटा ज्या संगत नहीं जास्यां।
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्यां॥
- 14 -
मोरी लागी लटक गुरु चरणकी॥
चरन बिना मुज कछु नही भावे। झूंठ माया सब सपनकी॥
भवसागर सब सुख गयी है। फिकीर नही मुज तरुणोनकी॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। उलट भयी मोरे नयननकी॥
- 15 -
गली तो चारों बंद हुई हैं, मैं हरिसे मिलूँ कैसे जाय।।
ऊंची-नीची राह रपटली, पांव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाय।।
ऊंचा नीचां महल पिया का म्हांसूँ चढ्यो न जाय।
पिया दूर पथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय।।
कोस कोस पर पहरा बैठया, पैग पैग बटमार।
हे बिधना कैसी रच दीनी दूर बसायो लाय।।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु दई बताय।
जुगन-जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय।।
- 16 -
मेरो मन राम-हि-राम रटै।
राम-नाम जप लीजै प्राणी! कोटिक पाप कटै।
जनम-जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत फटै।
कनक-कटोरै इमरत भरियो, नामहि लेत नटै।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी तन-मन ताहि पटै।
- 17 -
माई मैनें गोविंद लीन्हो मोल॥
कोई कहे हलका कोई कहे भारी। लियो है तराजू तोल॥ मा०॥
कोई कहे ससता कोई कहे महेंगा। कोई कहे अनमोल॥ मा०॥
ब्रिंदाबनके जो कुंजगलीनमों। लायों है बजाकै ढोल॥ मा०॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। पुरब जनमके बोल॥ मा०॥
- 18 -
भजु मन चरन कँवल अविनासी।
जेताइ दीसे धरण-गगन-बिच, तेताई सब उठि जासी।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हे, कहा लिये करवत कासी।
इस देही का गरब न करना, माटी मैं मिल जासी।
यो संसार चहर की बाजी, साँझ पडयाँ उठ जासी।
कहा भयो है भगवा पहरयाँ, घर तज भए सन्यासी।
जोगी होय जुगति नहिं जाणी, उलटि जनम फिर जासी।
अरज करूँ अबला कर जोरें, स्याम तुम्हारी दासी।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, काटो जम की फाँसी।
- 19 -
बागनमों नंदलाल चलोरी॥ अहालिरी॥
चंपा चमेली दवना मरवा। झूक आई टमडाल॥
बागमों जाये दरसन पाये। बिच ठाडे मदन गोपाल॥
मीराके प्रभू गिरिधर नागर। वांके नयन विसाल॥
- 20 -
बरजी मैं काहूकी नाहिं रहूं।
सुणो री सखी तुम चेतन होयकै मनकी बात कहूं॥
साध संगति कर हरि सुख लेऊं जगसूं दूर रहूं।
तन धन मेरो सबही जावो भल मेरो सीस लहूं॥
मन मेरो लागो सुमरण सेती सबका मैं बोल सहूं।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुर सरण गहूं॥
- 21 -
बन्सी तूं कवन गुमान भरी॥
आपने तनपर छेदपरंये बालाते बिछरी॥
जात पात हूं तोरी मय जानूं तूं बनकी लकरी॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर राधासे झगरी बन्सी॥
- 22 -
बन जाऊं चरणकी दासी रे, दासी मैं भई उदासी॥
और देव कोई न जाणूं। हरिबिन भई उदासी॥
नहीं न्हावूं गंगा नहीं न्हावूं जमुना। नहीं न्हावूं प्रयाग कासी॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमलकी प्यासी॥
- 23 -
बड़े घर ताली लागी रे, म्हारां मन री उणारथ भागी रे॥
छालरिये म्हारो चित नहीं रे, डाबरिये कुण जाव।
गंगा जमना सूं काम नहीं रे, मैंतो जाय मिलूं दरियाव॥
हाल्यां मोल्यांसूं काम नहीं रे, सीख नहीं सिरदार।
कामदारासूं काम नहीं रे, मैं तो जाब करूं दरबार॥
काच कथीरसूं काम नहीं रे, लोहा चढ़े सिर भार।
सोना रूपासूं काम नहीं रे, म्हारे हीरांरो बौपार॥
भाग हमारो जागियो रे, भयो समंद सूं सीर।
अम्रित प्याला छांडिके, कुण पीवे कड़वो नीर॥
पीपाकूं प्रभु परचो दियो रे, दीन्हा खजाना पूर।
मीरा के प्रभु गिरघर नागर, धणी मिल्या छै हजूर॥
- 24 -
फूल मंगाऊं हार बनाऊ। मालीन बनकर जाऊं॥
कै गुन ले समजाऊं। राजधन कै गुन ले समाजाऊं॥
गला सैली हात सुमरनी। जपत जपत घर जाऊं॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। बैठत हरिगुन गाऊं॥
- 25 -
बसो मोरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति सांवरि सूरति, नैणा बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजंती-माल।।
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।।
- 26 -
फिर बाजे बरनै हरीकी मुरलीया सुनोरे, सखी मेरो मन हरलीनो॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी। ज्याय बजी वो तो मथुरा नगरीया॥
तूं तो बेटो नंद बाबाको। मैं बृषभानकी पुरानी गुजरियां॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। हरिके चरनकी मैं तो बलैया॥
- 27 -
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥
- 28 -
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।
और आसरो नांही तुम बिन, तीनू लोक मंझार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
आपबिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
मीरा कहै मैं दासि रावरी, दीज्यो मती बिसार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
- 29 -
फरका फरका जो बाई हरी की मुरलीया, सुनोरे सखी मारा मन हरलीया॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी। और बाजी जाहा मथुरा नगरीया॥
तुम तो बेटो नंदबावांके। हम बृषभान पुराके गुजरीया॥
यहां मधुबनके कटा डारूं बांस। उपजे न बांस मुरलीया॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमलकी लेऊंगी बलय्या॥
- 30 -
प्रभुजी थे कहाँ गया, नेहड़ो लगाय।
छोड़ गया बिस्वास संगाती प्रेम की बाती बलाय।।
बिरह समंद में छोड़ गया छो हकी नाव चलाय।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे तुम बिन रह्यो न जाय।।
- 31 -
प्रभु तुम कैसे दीनदयाळ॥
मथुरा नगरीमों राज करत है बैठे। नंदके लाल॥
भक्तनके दुःख जानत नहीं। खेले गोपी गवाल॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपाल॥
- 32 -
प्रभुजी थे कहां गया नेहड़ो लगाय।
छोड़ गया बिस्वास संगाती प्रेमकी बाती बलाय॥
बिरह समंद में छोड़ गया छो, नेहकी नाव चलाय।
मीरा के प्रभु कब र मिलोगे, तुम बिन रह्यो न जाय॥
- 33 -
बरसै बदरिया सावन की
सावन की मनभावन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की।
उमड़ घुमड़ चहुँ दिसि से आयो
दामण दमके झर लावन की।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै
सीतल पवन सोहावन की।
मीराके प्रभु गिरधर नागर
आनंद मंगल गावन की।
- 34 -
स्वामी सब संसार के हो सांचे श्रीभगवान।।
स्थावर जंगम पावक पाणी धरती बीज समान।
सबमें महिमा थांरी देखी कुदरत के कुरबान।।
बिप्र सुदामा को दालद खोयो बाले की पहचान।
दो मुट्ठी तंदुलकी चाबी दीन्हयों द्रव्य महान।
भारत में अर्जुन के आगे आप भया रथवान।
अर्जुन कुलका लोग निहारयां छुट गया तीर कमान।
ना कोई मारे ना कोइ मरतो, तेरो यो अग्यान।
चेतन जीव तो अजर अमर है, यो गीतारों ग्यान।।
मेरे पर प्रभु किरपा कीजौ, बांदी अपणी जान।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल में ध्यान।।
- 35 -
प्रभु जी तुम दर्शन बिन मोय घड़ी चैन नहीं आवड़े
अन्न नहीं भावे नींद न आवे विरह सतावे मोय
घायल ज्यूं घूमूं खड़ी रे म्हारो दर्द न जाने कोय
दिन तो खाय गमायो री, रैन गमाई सोय
प्राण गंवाया झूरता रे, नैन गंवाया दोनु रोय
जो मैं ऐसा जानती रे, प्रीत कियाँ दुख होय
नगर ढुंढेरौ पीटती रे, प्रीत न करियो कोय
पन्थ निहारूँ डगर भुवारूँ, ऊभी मारग जोय
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, तुम मिलयां सुख होय
- 36 -
प्रगट भयो भगवान
नंदाजीके घर नौबद बाजे। टाळ मृदंग और तान
सबही राजे मिलन आवे। छांड दिये अभिमान
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। निशिदिनीं धरिजे ध्यान
- 37 -
प्यारे दरसन दीज्यो आय, तुम बिन रह्यो न जाय
जल बिन कमल, चंद बिन रजनी। ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, बिरह कलेजो खाय
दिवस न भूख, नींद नहिं रैना, मुख सूं कथत न आवै बैना
कहा कहूं कछु कहत न आवै, मिलकर तपत बुझाय
क्यूं तरसावो अंतरजामी, आय मिलो किरपाकर स्वामी
मीरां दासी जनम जनम की, पड़ी तुम्हारे पाय
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पिहु की बोलि न बोल पपैय्या
तै खोलना मेरा जी डरत है। तनमन डावा डोल॥ पपैय्या
तोरे बिना मोकूं पीर आवत है। जावरा करुंगी मैं मोल॥ पपैय्या
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर। कामनी करत कीलोल॥ पपैय्या
- 39 -
पिया मोहि दरसण दीजै हो
बेर बेर मैं टेरहूं, या किरपा कीजै हो
जेठ महीने जल बिना पंछी दुख होई हो
मोर असाढ़ा कुरलहे घन चात्रा सोई हो
सावण में झड़ लागियो, सखि तीजां खेलै हो
भादरवै नदियां वहै दूरी जिन मेलै हो
सीप स्वाति ही झलती आसोजां सोई हो
देव काती में पूजहे मेरे तुम होई हो
मंगसर ठंड बहोती पड़ै मोहि बेगि सम्हालो हो
पोस महीं पाला घणा,अबही तुम न्हालो हो
महा महीं बसंत पंचमी फागां सब गावै हो
फागुण फागां खेलहैं बणराय जरावै हो
चैत चित्त में ऊपजी दरसण तुम दीजै हो
बैसाख बणराइ फूलवै कोमल कुरलीजै हो
काग उड़ावत दिन गया बूझूं पंडित जोसी हो
मीरा बिरहण व्याकुली दरसण कद होसी हो
- 40 -
पपइया रे, पिव की वाणि न बोल
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय
- 41 -
राग दरबारी कान्हरा
पिय बिन सूनो छै जी म्हारो देस॥
ऐसो है कोई पिवकूं मिलावै, तन मन करूं सब पेस।
तेरे कारण बन बन डोलूं, कर जोगण को भेस॥
अवधि बदीती अजहूं न आए, पंडर हो गया केस।
रा के प्रभु कब र मिलोगे, तज दियो नगर नरेस॥
- 42 -
पानी में मीन प्यासी, मोहे सुन सुन आवत हांसी
आत्मज्ञान बिन नर भटकत है। कहां मथुरा काशी
भवसागर सब हार भरा है। धुंडत फिरत उदासी
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सहज मिळे अविनाशी
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पपइया रे, पिव की वाणि न बोल।
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज।
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥
- 44 -
पतीया मैं कैशी लीखूं, लीखये न जातरे
कलम धरत मेरा कर कांपत। नयनमों रड छायो
हमारी बीपत उद्धव देखी जात है। हरीसो कहूं वो जानत है
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल रहो छाये
- 45 -
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे
- 46 -
नामोकी बलहारी गजगणिका तारी
गणिका तारी अजामेळ उद्धरी। तारी गौतमकी नारी
झुटे बेर भिल्लणीके खावे। कुबजा नार उद्धारी
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलिहारी
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नाथ तुम जानतहो सब घटकी, मीरा भक्ति करे प्रगटकी
ध्यान धरी प्रभु मीरा संभारे पूजा करे अट पटकी
शालिग्रामकूं चंदन चढत है भाल तिलक बिच बिंदकी
राम मंदिरमें नाचे ताल बजावे चपटी
पाऊमें नेपुर रुमझुम बाजे। लाज संभार गुंगटकी
झेर कटोरा राणाजिये भेज्या संत संगत मीरा अटकी
ले चरणामृत मिराये पिधुं होगइे अमृत बटकी
सुरत डोरी पर मीरा नाचे शिरपें घडा उपर मटकी
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर सुरति लगी जै श्रीनटकी
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नही तोरी बलजोरी राधे
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे। छीन लीई बांसरी
सब गोपन हस खेलत बैठे। तुम कहत करी चोरी
हम नही अब तुमारे घरनकू। तुम बहुत लबारीरे
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलिहारीरे
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नही जाऊंरे जमुना पाणीडा, मार्गमां नंदलाल मळे
नंदजीनो बालो आन न माने। कामण गारो जोई चितडूं चळे
अमे आहिउडां सघळीं सुवाळां। कठण कठण कानुडो मळ्यो
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। गोपीने कानुडो लाग्यो नळ्यो
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तुम्हरे कारण सब छोड्या, अब मोहि क्यूं तरसावौ हौ
बिरह-बिथा लागी उर अंतर, सो तुम आय बुझावौ हो
अब छोड़त नहिं बड़ै प्रभुजी, हंसकर तुरत बुलावौ हौ
मीरा दासी जनम जनम की, अंग से अंग लगावौ हौ
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