संत सूरदास के सर्वश्रेष्ठ दोहे | 25 Best Surdas Ke Dohe With Meaning in Hindi With HD Images

Top Surdas Ji Ke Dohe Pad Sakhi in Hindi : सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे।

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हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के [सूर्य] माने जाते हैं। इस पोस्ट मे पढ़िये सूरदास जी के कुछ बहेतरीन दोहे अर्थ के साथ। 


संत सूरदास के सर्वश्रेष्ठ दोहे अर्थ सहित हिन्दी मे ( फोटोस के साथ )


- 1 -


उधौ मन न भये दस बीस ।

एक हुतौ सौ गयो स्याम संग को अराधे ईस ।।

इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यो देहि बिनु सीस ।

आसा लागि रहित तन स्वाहा जीवहि कोटि बरीस।।

तुम तौ सखा स्याम सुंदर के सकल जोग के ईस ।

सूर हमारे नंद -नंदन बिनु और नही जगदीस ।।


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अर्थ : गोपियाँ व्यंग करना बंद करके अपने मन की दशा का वर्णन करती हुई कहती है कि हे उद्वव हमारे मन दस बीस तो है नही ,एक था वह भी श्याम के साथ चला गया ।

अब किस मन से ईश्वर की आराधना करें ? उनके बिना हमारी इंद्रियां शिथिल पड़ गयी है।

शरीर मानो बिना सिर के हो गया है।

बस उनके दर्शन की थोड़ी सी आशा भी हमे करोड़ो वर्ष जीवित रखेगी ।

तुम तो कान्हा के सखा हो ,योग के पूर्ण ज्ञाता हो ।

तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे ।

हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नही है ।


- 2 -


निरगुन कौन देस को वासी ।

मधुकर किह समुझाई सौह दै, बूझति सांची न हांसी।।

को है जनक ,कौन है जननि ,कौन नारि कौन दासी ।

कैसे बरन भेष है कैसो ,किहं रस में अभिलासी ।।

पावैगो पुनि कियौ आपनो, जा रे करेगी गांसी ।

सुनत मौन हवै रह्यौ बावरों, सुर सबै मति नासी ।।


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अर्थ : भ्रमरगीत सार में सूरदास जी ने उन पदों को समाहित किया है जिसमे मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्वव को ब्रज संदेश लेकर भेजा जाता है । उद्वव जो कि योग और ब्रह्म के ज्ञाता है ।

उनका प्रेम से कोई नाता नही है ।जब गोपियों को निराकारब्रह्म और योग की शिक्षा देते है, तो गोपियों को यह अच्छा नही लगता ।गोपियाँ रुष्टहो जाती है और उद्वव को काले भवँरे की उपमा देती है । 

उनका यह संवाद ही भ्रमरगीत सार के नाम से विख्यात हुआ ।

गोपियाँ उद्वव जी से कहती है कि तुम्हारा यह निर्गुण किस देश का रहने वाला है ?  सच मे मैं सौगन्ध  देकर पूछती हूँ । यह हंसी की बात नही है । इसके माता पिता, नारी -दासी आखिर कौन है ।

इनका रूप रंग और भेष कैसा है ? किस रस में उनकी रुचि है ? यदि उनसे हमने छल किया तो तुम पाप और दंड के भागी होंगे ।

सूरदास जी कहते है कि गोपियों के इस तर्क के आगे उद्वव की बुद्धि कुंद हो गयी और वे चुप हो गए ।


- 3 -


बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है

बेटी देखी नही कहूं ब्रज खोरी ।।

काहे को हम ब्रजतन आवति खेलति रहहि आपनी पौरी ।

सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी ।।

तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी ।

सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी ।।


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अर्थ : यह पद राग तोड़ी से बद्ध है । इसमें राधा के प्रथम मिलन के बारे में वर्णन किया गया है ।

श्रीकृष्ण ने राधा से पूछा , हे ! गौरी तुम कौन हो ? कहां रहती हो ? किसकी पुत्री हो ? हमने पहले कभी तुम्हे इन गलियों में नही देखा ।

तुम हमारे इस ब्रज में क्यो चली आयी ? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहती । इतना सुनकर राधा बोली ,मैं सुना करती थी कि नंद का लड़का माखन चोरी करता फिरता है ।

कृष्ण बोले कि हम तुम्हारा क्या चुरा लेंगे ? अच्छा हम मिलजुलकर खेलते है ।

इस प्रकार सूरदास जी कहते है कि रसिक कृष्ण ने बातो ही बातो में भोली भाली राधा को भरमा दिया ।


- 4 -


मैया मोहि कबहुँ बढ़ेगी चोटी ।

किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहू है छोटी ।।

तू तो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी ।

काढ़त गुहत न्हावावत जैहै नागिन सी भुई लोटी ।।

काचो दूध पियावति पचि -पचि देति न माखन रोटी ।

सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी ।।


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अर्थ : रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत ही लोकप्रिय है । बाल्य काल मे श्री कृष्ण दूध पीने में आना -कानी किया करते थे ।

तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि  कान्हा तुम रोज कच्चा दूध पिया करो । इससे तेरी चोटी दाऊ जैसी मोटी और लंबी हो जाएगी । मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे ।

अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले  मैया मेरी यह चोटी कब बढ़ेगी ? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया है । लेकिन अभी तक वैसी ही छोटी है ।

तू तो कहती थी कि दूध पीने से तेरी चोटी दाऊ की तरह मोटी और लम्बी हो जाएगी । शायद इसलिए तू मुझे नित्य नहला कर बालों को कंघी से सॅवारती है । चोटी गूँधती है ।

जिससे चोटी बढ़कर नागिन  सी लंबी हो जाये । कच्चा दूध भी इसलिए पिलाती है । इस चोटी के कारण ही तू मुझे माखन और रोटी भी नही देती है । इतना कहकर श्री कृष्ण रूठ जाते है ।

सूरदास जी कहते है कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण और बलराम की जोड़ी मन को सुख पहुंचाने वाली है ।


- 5 -


मुखहि बजावत बेनु धनि यह वृन्दावन की रेनु ।

नंद किसोर चरावत गैयां मुखहि बजावत बेनु ।।

मनमोहन को ध्यानधरै जिय अति सुख पावत चैन।

चलत कहां मन बस पुरातन जहाँ कछु लें ना देन ।।

यहां रहहु जहँ जूठन पावहु ब्रज बासिनी के  ऐनु ।

सूरदास ह्या  की सरवरि नहि कल्पबृच्छ सुरधेनु ।।


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अर्थ : यह दोहा राग सारंग पर आधारित है । सूरदास जी कहते है कि ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्री कृष्ण गायो को चराते है और अपने अधरों पर बाँसुरी बजाते है ।

इस भूमिपर स्याम का स्मरण करने से मन को परम शांति मिलती है । मन को प्रभावित करते हुए सूरदास जी कहते है कि हे मन! तू काहे इधर उधर भटकता है ।

ब्रज में ही रहकर ,व्यवहारिकता से परे रहकर सुख की प्राप्ति होती है । यहां न किसी से लेना है ना किसी को देना है । सब ईश्वर के प्रति ध्यान मग्न हो रहे है ।

ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियो के जूठे बर्तन से ही कुछ प्राप्त हो उसे ग्रहण करने से ब्रह्ममत्व की प्राप्ति होती है । ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नही कर सकती ।


- 6 -


मैया मोहि मैं नही माखन खायौ ।

भोर भयो गैयन के पाछे ,मधुबन मोहि पठायो ।

चार पहर बंसीबट भटक्यो , साँझ परे घर आयो ।।

मैं बालक बहियन को छोटो ,छीको किहि बिधि पायो ।

ग्वाल बाल सब बैर पड़े है ,बरबस मुख लपटायो ।।

तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो ।

जिय तेरे कछु भेद उपजि है ,जानि परायो जायो ।।

यह लै अपनी लकुटी कमरिया ,बहुतहिं नाच नचायों।

सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उर कंठ लगायो ।।


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अर्थ : बहुत ही प्रसिद्ध पद है ,श्री कृष्ण की  बाल लीला का वर्णन अत्यंत सहज भाव से सूरदास जी  करते है :

कन्हैया कहते है कि मैया मैंने माखन नही खाया  है ।सुबह होते ही गायों के पीछे मुझे भेज देती हो । चार पहर भटकने के बाद साँझ होने पर वापस आता हूँ ।

मैं छोटा बालक हूँ । मेरी बाहें छोटी है , मैं छीके तक कैसे पहुँच सकता हूँ ? मेरे सभी दोस्त मेरे से बैर रखते है । इन्होंने मक्खन जबरदस्ती मेरे मुख में लिपटा दिया है ।

मां तू मन की बहुत ही भोली है । इनकी बातो में आ गईं है । तेरे दिल मे जरूर कोई भेद है ,जो मुझे पराया समझ कर मुझ पर संदेह कर रही हो । ये ले अपनी लाठी और कम्बल ले ले ।

तूने मुझे बहुत परेशान किया है । श्री कृष्ण ने बातों से अपनी मां का मन मोह लिया । मां यशोदा ने मुस्कराकर कन्हैया को अपने गले से लगा लिया ।


- 7 -


मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायौ ।

मोसो कहत मोल को लीन्हो ,तू जसमति कब जायौ ?

कहा करौ इही के मारे खेलन हौ नही जात ।

पुनि -पुनि कहत कौन है माता ,को है तेरौ तात ?

गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत श्यामल गात ।

चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसकात  ।

तू मोहि को मारन सीखी दाउहि कबहु न खीजै।।

मोहन मुख रिस की ये बातै ,जसुमति सुनि सुनि रीझै ।

सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई ,जनमत ही कौ धूत ।

सूर स्याम मोहै गोधन की सौ,हौ माता थो पूत ।।


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अर्थ : राग घनाक्षरी पर आधारित है ।  बाल कृष्ण मां यशोदा से बलराम जी की शिकायत करते हुए कहते है कि मैया दाऊ मुझे बहुत चिढ़ाते है ।

मुझसे कहते है कि तू मोल लिया हुआ है । यशोदा मैया ने तुझे कब उत्पन्न किया । मैं क्या करूँ इसी क्रोध में , मैं खेलने नही जाता । वे बार बार कहते है : तेरी माता कौन है ? तेरे पिता कौन है? नंद बाबा तो गोरे है । यशोदा मैया भी गोरी है ।

तू सांवरे रंग वाला कैसे है ? दाऊ जी इस बात पर सभी ग्वालबाल मुझे चुटकी देकर नचाते है ।और फिर सब हँसते है और मुस्कराते है । तूने तो मुझे ही मारना सीखा है ।

दाऊ को कभी डांटती भी नही । सूरदास जी कहते है कि मोहन के मुख से ऐसी बाते सुनकर यशोदा जी मन ही मन मे प्रसन्न होती है ।

वे कहती है कि कन्हिया सुनो बलराम तो चुगलखोर है और वो आज से नही बल्कि जन्म से ही धूर्त है  । हे श्याम मैं  गायों की शपथ कहकर कह रही हूँ कि मैं तुम्हारी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो ।


- 8 -


जसोदा हरि पालनै झुलावै ।

हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै ।।

मेरे लाल को आउ निंदरिया कहे न आनि सुवावै ।

तू काहै नहि बेगहि आवै तोको कान्ह बुलावै ।।

कबहुँ पलक हरि मुंदी लेत है कबहु अधर फरकावै ।

सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै ।।

इही अंतर अकुलाई उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।

जो सुख सुर अमर मुनि दुर्लभ सो नंद भामिनि पावै ।।


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अर्थ : यशोदा जी श्याम को पालने में झूला रही है । कभी झुलाती है । कभी प्यार से पुचकारती है । कुछ गाते हुए कहती है कि निंद्रा तू मेरे लाल के पास आ जा ।

तू क्यों आकर इसे सुलाती नही है । तू झटपट क्यो नही आती ? तुझे कन्हिया बुला रहा है । श्याम कभी पलके बंद कर लेते है । कभी अधर फड़काने लगते है ।

उन्हे सोते हुए जान कर  माता चुप रहती है और दूसरी गोपियों को भी चुप रहने को कहती है । इसी बीच मे श्याम आकुल होकर जाग जाते है । यशोदा जी फिर मधुर स्वर में गाने लगती है ।

सूरदास जी कहते है कि जो सुख देवताओं और मुनियों के लिए भी दुर्लभ है ।

वही सुख श्याम बाल रूप में पाकर  श्री नंद पत्नी यशोदा जी प्राप्त कर रही है ।


- 9 -


अबिगत गति कछु कहत न आवै ।

ज्यो गूँगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै ।।

परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै।

मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै ।।

रूप रेख मून जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै ।

सब बिधि अगम  बिचारहि,

तांतों सुर सगुन लीला पद गावै ।।


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अर्थ : अव्यक्त  उपासना को मनुष्य के लिए क्लिष्ट बताया गया है । निराकार ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है । यह मन और वाणी का विषय नही है ।

ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गूंगे को मिठाई खिला दी जाए और उससे उसका स्वाद पूछा जाए तो वह मिठाई का स्वाद नही बता सकता है ।

मिठाई के  रस का स्वाद तो उसका मन ही जानता है । निराकार ब्रह्म का न रूप है ना न गुण है । इसलिए मैं यहाँ स्थिर नही रह सकता । सभी तरह से वह अगम्य है ।

अतः सूरदास जी सगुन ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीला का ही गायन करना उचित समझते है ।


- 10 -


चरण कमल बंदो  हरी राइ ।

जाकी कृपा पंगु गिरी लांघें अँधे को सब कुछ दरसाई।।

बहिरो सुनै मूक पुनि बोले रंक चले सर छत्र धराई।

सूरदास स्वामी करुणामय बार- बार बंदौ तेहि पाई ।।


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अर्थ : सूरदास के अनुसार श्री कृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है । अंधे को सब कुछ दिखाई देने लता है। बहरे  व्यक्ति  सुनने लगता है।

गूंगा व्यक्ति बोलने लगता है और गरीब व्यक्ति अमीर हो जाता है। ऐसे दयालु श्री कृष्ण के चरणों की वंदना कौन नहीं करेगा ।


- 11 -


कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात।

अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।।


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अर्थ: यह पद रामकली में बध्द हैं। एक बार कृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे की रोते रोते नेत्र लाल हो गये। भौंहें वक्र हो गई और बार बार जंभाई लेने लगे।

कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकालते थे।


- 12 -


कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धुरि धूसर गात।

कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।।


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अर्थ:  घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धुल – धूसरित कर लिया।

कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते।


- 13 -


कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।

सुर हरी की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।।


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अर्थ: सूरदास कहते हैं की श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक एक पाल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।


- 14 -


अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया।

नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।


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अर्थ: सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबध्द हैं। भगवान् बालकृष्ण अब मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं।

सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया नंदबाबा को बाबा और बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं।


- 15 -


ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया। 

दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।


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अर्थ: इतना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया के नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं की लल्ला गाय तुझे मारेंगी।


- 16 -


गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।


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अर्थ: सूरदास कहते हैं की गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता हैं। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयाँ दे रहे हैं। सूरदासजी कहते हैं की हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।


- 17 -


जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।

नंदनंदन मेरे मंदीर में आजू करन गए चोरी।।


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अर्थ: सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित हैं। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन हैं। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आयी। वो बोली की हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए।


- 18 -


हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।

रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी।।


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अर्थ: पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा की माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई हैं तो मुझे बहुत पछतावा हुआ।


- 19 -


मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।

जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी।।


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अर्थ: जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनकी आंखों में आंसू भी भर आए।


- 20 -


लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी

सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।।


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अर्थ: ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।


- 21 -


हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत।

तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।।


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अर्थ: राग रामकली में आबध्द इस पद में सूरदासजी जी ने भगवान् कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया हैं। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता हैं वो गाते हैं। वह छोटे छोटे पैरो से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं।


- 22 -


बांह उठाई कारी धौरी गैयनि टेरी बुलावत।

कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर आवत।।


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अर्थ: कभी वह भुजाओं को उठाकर कली श्वेत गायों को बुलाते है, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं और घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोड़ा सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं।


- 23 -


माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।

कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।।


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अर्थ: श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन में प्रसन्न होती हैं। सूरदासजी कहते हैं की इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य हर्षाती हैं।


- 24 -


दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।

सुर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।।


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अर्थ: इस पद में महाकवि सूरदास जी ने जिस तरह श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है वह वाकई तारीफ -ए- काबिल है।


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