नीति के सर्वश्रेष्ठ दोहे | 18 Best Niti Ke Dohe With Meaning in Hindi With HD Images
Top Niti Ke Dohe, Pad And Poems in Hindi With Meaning : आज हम आपको अपने इस लेख में हिन्दी साहित्य के महान कवि कबीरदास जी, रहीम दास जी और तुलसीदास जी के नीति के दोहों – Niti ke Dohe को अर्थ समेत बताएंगे जिसमें कवियों ने लोगों को बड़ी सीख दी है।
नीति के सर्वश्रेष्ठ दोहे अर्थ सहित हिन्दी मे ( फोटोस के साथ )
तुलसीदास जी के नीति के दोहे – Tulsidas Ke Niti Ke Dohe
- 1 -
तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन इक मंत्र है, तज दे बचन कठोर।।
अर्थ : हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसीदास जी ने अपने इस दोहे में कहते है कि मीठे वचन बोलने से चारों तरफ खुशियां फैल जाती है और सब कुछ खुशहाल रहता है। मीठे वचन बोलकर कोई भी मनुष्य किसी को भी अपने वश मे कर सकता है। इसलिए इंसान को हमेशा मीठी बोली ही बोलनी चाहिये।।
- 2 -
आवत ही हर्ष नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह।
अर्थ : इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं, जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों और उन लोगों की आंखों में आपके लिए न तो प्रेम और न ही स्नेह हो। वहां हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहां धन की ही वर्षा क्यों न होती हो।
- 3 -
मुखिया मुख सौं चाहिए, खान-पान को एक।
पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।
अर्थ : इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है।
रहीम दास जी के नीति के दोहे – Rahim Ke Niti Ke Dohe
- 4 -
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोले बोल।
‘रहिमन’ हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल॥
अर्थ : इस दोहे में कवि कबीरदास जी कह रहे हैं कि जो लोग सचमुच में बड़े होते हैं, वे अपनी बड़ाई नहीं किया करते, बड़े-बड़े बोल नहीं बोला करते। हीरा कब कहता है कि मेरा मोल लाख टके का है।
- 5 -
“जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग। कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।”
अर्थ : जो लोग गरीब का हित करते हैं वो बड़े लोग होते हैं। जैसे सुदामा कहते हैं कृष्ण की दोस्ती भी एक साधना हैं।
- 6 -
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े जुड़े तो गाठ पड़ जाय।।
अर्थ : इस दोहे में कवि रहीमदास जी कहते हैं कि प्रेम का नाता बेहद नाजुक होता है। इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता क्योंकि अगर यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और फिर अगर ये धागा मिल भी जाता है तो फिर टूटे हुए धागों के बीच में गांठ पड़ जाती है।
- 7 -
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।
अर्थ : इस दोहे में कवि रहीम दास जी कहते हैं कि जो लोग अच्छे स्वभाव और दृढ-चरित्र वाले व्यक्ति होते हैं उन लोगों में बुरी संगत में रहने पर भी उनके चरित्र में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता जिस तरह चन्दन के वृक्ष पर चाहे जितने विषैले सर्प लिपटे रहें, लेकिन उस वृक्ष पर सर्पों के विष का प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात चन्दन का वृक्ष अपनी सुगंध और शीतलता के गुण को छोड़कर जहरीला नहीं हो जाता।
- 8 -
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय|
सुनि इटलैहैं लोग सब, बाँट न लैहैं कोय।
अर्थ : इस दोहे में कवि रहीमदास जी कहते हैं कि हमें अपने मन के दुःख को मन के अंदर ही छिपा कर ही रखना चाहिए क्योंकि दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बांट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।
- 9 -
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान|
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहिं सुजान।
अर्थ : इस दोहे में कवि रहीम दास जी कहते हैं कि वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते हैं और तालाब भी अपना पानी खुद नहीं पीता है। इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के काम के लिए अपनी संपत्ति को संचित करते हैं।
कबीर दास जी के नीति के दोहे अर्थ समेत – Kabir Ke Niti Ke Dohe
- 10 -
दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत।
अपने या न आवई, जिनका आदि न अंत।।
अर्थ : कवि कबीरदास जी अपने इस दोहे में कहते हैं कि यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
- 11 -
गुरू गोविन्द दोऊ खङे का के लागु पाँव।
बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय ।।
अर्थ : इस दोहे में संत कबीरदास जी कहते हैं कि गुरू और गोबिंद अर्थात शिक्षक और भगवान जब दोनों एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को ?
कवि कहते हैं कि ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है क्योंकि गुरु ने ही भगवान तक जाने का रास्ता बताया है अर्थात गुरु की कृपा से ही गोविंद के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
- 12 -
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
अर्थ : इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग हमारी निंदा करते हैं, उसे ज्यादा से ज्यादा अपने पास ही रखना चाहिए। क्योंकि वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ करता है।
- 13 -
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
अर्थ : इस दोहे में कवि कहते हैं कि न तो ज्यादा बोलना ही अच्छा है और न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। उदाहरण देते हुए कवि इस दोहे में समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि जैसे बहुत ज्यादा बारिश भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
- 14 -
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
अर्थ : इस दोहे में हिन्दी साहित्य के महान कवि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
- 15 -
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।
अर्थ : इस दोहे में कवि कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
- 16 -
जिन ढूंढा तिन पाईयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
अर्थ : इस दोहे में कवि कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ लेकर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पा पाते।
- 17 -
जब मैं था तब हरिनहीं, अब हरिहैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
अर्थ : इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर से मिलन नहीं हुआ लेकिन जब घमंड खत्म हो गया तभी प्रभु मिले अर्थात जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ। तब अहम खुद व खुद खत्म हो गया।
इसमें कवि कहते हैं कि ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया. प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता। प्रेम की संकरी-पतली गली में एक ही समा सकता है- अहम् या परम! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन जरूरी है।
- 18 -
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
अर्थ : इस दोहे में कवि कहते हैं कि प्रेम खेत में नहीं पैदा होता है और न ही प्रेम बाज़ार में बिकता है। चाहे कोई राजा हो या फिर कोई साधारण आदमी सभी को प्यार आत्म बलिदान से ही मिलता है, क्योंकि त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता है। प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं है!
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